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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ५. इन महाकाव्यों में कवियों ने धर्म, राजनीति आदि विविध शास्त्रविषयक ज्ञान को प्रदर्शित किया है। प्रद्युम्नचरितकाव्य :
इस काव्य की प्रकाशित प्रति में १४ सर्ग हैं जिनमें कुल मिलाकर १५३२ पद्य हैं। नवम सर्ग सबसे विशाल है जिसमें विविध छन्दों में निर्मित ३४९ पद्य हैं। अष्टम में १९७ तथा पंचम में १५० पद्य हैं। सबसे कम छन्द १३वे सर्ग में हैं-४४।
रचयिता एवं रचनाकाल-प्रकाशित प्रति में ग्रन्थकर्ता की कोई प्रशस्ति नहीं दी गई पर कारंजा के जैन भण्डार की प्रति में ६ पद्यों की एक प्रशस्ति मिलती है जिसके अनुसार इस ग्रन्थ के कर्ता महासेनसूरि हैं। वे लाटवगट संघ में सिद्धान्तों के पारगामी जयसेन मुनि के शिष्य गुणाकरसेन के शिष्य थे। वे परमारनरेश मुंज के द्वारा पूजित थे और राजा भोज के पिता सिन्धुराज या सिन्धुल का महत्तम (महामात्य ) पर्पट उनके चरणकमलों का अनुरागी था।' महासेन ने इस काव्य की रचना की और राजा के अनुचर विवेकवान् मघन ने इसे लिखकर कोविदजनों को दिया।
इसके प्रत्येक सर्ग के अन्त में महासेन को सिन्धुराज के महामहत्तम पर्पट का गुरु लिखा है जो इस बात का सूचक है कि पर्पट जैनधर्मानुयायी था और उसके लिए इस काव्य की रचना हुई थी। यद्यपि काव्यनिर्माण का समय प्रशस्ति में नहीं दिया गया परन्तु मुंज और सिन्धुल के उल्लेख से इसके समय का अनुमान किया जा सकता है। सिन्धुराज का समय लगभग ९९५-९९८ ई० है । इस ग्रन्थ की रचना भी इन्हीं वर्षों में होनी चाहिए। .. माणिकचन्द्र दिग० जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, १९.७; पं० नाथूराम प्रेमी,
जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ४११; जिनरत्नकोश, पृ. २६४; इसके महाकाव्यत्व के लिए देखें-डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास
में जैन कवियों का योगदान, पृ० १०९-१३९. २. आसीत् श्रीमहसेनसूरिरनघः श्रीमुंजराजार्चितः ।
सीमा दर्शनबोधवृक्षतपसां भव्याब्जिनीबान्धवः ।। श्रीसिन्धुराजस्य महत्तमेन श्रीपर्पटेनार्चितपादपन्नः ।
चकार तेनाभिहितः प्रबंधं स पावनं निष्ठितमंगलस्य ॥ प्रशस्ति पद्य ३-४. ३. डा. गुलाबचन्द्र चौधरी, पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ नॉर्दर्न इण्डिया, पृ० ९५.
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