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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसी तरह इस काव्य में जैनधर्म के नियमों या दार्शनिक सिद्धान्तों का विवेचन भी नहीं के बराबर है। तृतीय सर्ग में गुणाढ्यसूरि की देशना का संकेत मात्र दिया गया है। पर परोक्षरूप से जैनधर्म की महत्ता का प्रतिपादन करना इस काव्य का उद्देश्य है।
इस काव्य का प्रधान रस शान्तरस' है पर अन्य रसों की भी अभिव्यक्ति इसमें हुई है। अष्टम सर्ग में सनत्कुमार की बाल-क्रीड़ाओं के वर्णन में वात्सल्यरस' का सुन्दर उद्रेक हुआ है। दसवे सग में सनत्कुमार की खोज के समय अटवी के वर्णन में भयानकरस तथा मृत विष्णुश्री के दुर्गन्धित शव के चित्रण में वीभत्सरस' द्रष्टव्य है। अशनिघोष और सनत्कुमार के मध्य युद्ध-वर्णन में वीररस देखा जा सकता है ।
भाषा, रीति, गुण और अलंकार की दृष्टि से भी यह काव्य महनीय है । भाषा में गरिमा और उदात्तता है। रसों और भावनाओं के अनुकूल भाषा प्रवाहित हुई है। यत्र-तत्र मुहावरों और लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया गया है। केवल एक सर्ग 'इक्कीसवें' की भाषा में पाण्डित्यप्रदर्शन किया गया है जिसे समझने के लिए चौद्धिक व्यायाम करना पड़ता है। इसमें चित्रबंध के नाना उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। इसी सग में शब्दालंकारों की छटा प्रदर्शित की गई है पर अन्य सर्गों में स्वाभाविकता की रक्षा करते हुए अर्थालंकारों का प्रयोग हुआ है। उनमें उपमा, उत्प्रेक्षा और रूपक का प्रयोग प्रचुरता से हुआ है। अन्य अलंकारों में सन्देश, उदाहरण, संभावना, विशेषोक्ति, परिसंख्या, एकावली, मुद्रा आदि द्रष्टव्य हैं।
- इस महाकाव्य के सर्गों में प्रायः एक छन्द का ही प्रयोग हुआ है और सर्गान्त में छन्द बदल दिया गया है। कतिपय सर्गों में विविध छन्दों का भी प्रयोग हुआ है । इसमें कुल मिलाकर चौंतीस छन्दों का प्रयोग हुआ है। सबसे अधिक उपजाति, अनुष्टुप् और वंशस्थ का प्रयोग हुआ है । अप्रचलित या अल्प
१. सर्ग २३. ८-11; १६.६, १८. १४-२२. २. सर्ग ८. ५, २३. १. सर्ग १०. २७, ३१, ३४. ४. सर्ग ३. ३१-३५. ५. सर्ग २०. ६. सर्गे १. ८४, २. ३, ८८, ९०, ५, ४,१८. २३.
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