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ललित वाङ्मय
धर्मसूरि मुनि से देशना सुनना वर्णित है ( १२ सर्ग ) । तत्पश्चात् जयन्त-कनकवती के विवाह का वर्णन है ( १३ सर्ग ) और विवाहोपरान्त ईर्ष्यावश आक्रमण करनेवाले नरेश महेन्द्र का युद्ध में वध ( १४ सर्ग ) का वर्णन है ।
इसके बाद जयन्त के पिता विक्रमसिंह को मुनि के उपदेश से सम्यक्त्व की प्राप्ति, एक ब्राह्मण का मुनि द्वारा वाद-विवाद में पराजय और सभा से निष्कासन, उसी समय जयन्त का प्रत्यागमन ( १५ सर्ग ) और एक स्वयंवर में जाकर रतिसुन्दरी का वरण ( १६ सर्ग ), विद्यादेवी द्वारा जयन्त और रतिसुन्दरी के पूर्व भव का वर्णन १७ सर्ग), कवि के अनुसार जयन्त के द्वारा रतिसुन्दरी के समक्ष ग्रीष्म, वर्षा एवं शरद् ऋतु का वर्णन, रतिसुन्दरी के पिता द्वारा जयन्त को हस्तिनापुर का राजा बनाना वर्णित है ( १८ सर्ग ) । तत्पश्चात् पिता के द्वारा आमन्त्रित होकर जयन्त का हस्तिनापुर से जयन्ती नगरी पहुँचना, पिता से राज्यभार ग्रहण करना, विक्रमसिंह का दीक्षा ग्रहण करना तथा जयन्त द्वारा नीतिपूर्वक प्रजापालन करना और जिनेन्द्रभक्ति का प्रचार करना एवं सौधर्मयति द्वारा सम्मान पाना, अन्त में सत्पात्र दान का महत्त्व दिया गया है ( १९ सर्ग ) ।
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इस काव्य की कथावस्तु में कहीं-कहीं पूर्वभवों के वर्णन के कारण प्रवाह में शिथिलता-सी दिखती है पर धारावाहिकता अविच्छिन्न है । नवें, दसवें और चौदहवें सर्ग के युद्ध-प्रसंगों में पात्रों के कथोपकथन से नाटकीय सजीवता दृष्टिगोचर होती है । वस्तुतः जयन्तविजय की कथासामग्री सरल, व्यापक एवं सम्बद्ध है। इसमें कई पात्र हैं पर विक्रमसिंह और जयन्त के चरित्र का अच्छा विकास हुआ है । प्रकृति-चित्रण भी इस काव्य में व्यापक रूप से किया गया है । देशों और ऋतुओं के वर्णन में इसके उदात्त दर्शन होते हैं ।' प्रकृतिसौन्दर्य की भांति मानव सौन्दर्य के विविध पक्षों का अंकन भी कवि ने इस काव्य में किया है।
इस काव्य में तत्कालीन सामाजिक परम्पराओं की झलक भी यत्र-तत्र मिल जाती है । इस काव्य का प्रधान लक्ष्य जयन्तकथा द्वारा पंचपरमेष्ठि नमस्कार मन्त्र की महिमा बताना है । कवि ने वैसे जैनधर्म के नियमों और सिद्धान्तों के प्रतिपादन में अधिक विस्तृत विवरण प्रस्तुत नहीं किये हैं फिर भी पन्द्रहवें सर्ग में
9. सर्ग ८. ६०, ६८; १२. ३३; १४, १५, १८-१९, ३६, १८.१९ आदि. २. सर्ग १ ६७-६९; १३. ३५; १७.८४.
३.स १९, १२, ५८, १३. ५१, ८१, ८४, ९४; १६१४.
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