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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास लिपि काल सं० १२८७ दिया गया है अतः उस समय से पूर्व इसकी रचना अवश्य हुई होगी। इसकी पूर्वावधि आचार्य हेमचन्द्र के योगशास्त्र के बाद ही आती है क्योंकि इस काव्य के २१वे सर्ग में जिन खरकर्मों का उल्लेख है वे हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर आधारित हैं, यह पहले कह चुके हैं। हेमचन्द्र का समय १२वीं शताब्दी का उत्तर भाग और तेरहवीं शताब्दी का पूर्वभाग है । इसलिए हरिचन्द्र का समय तेरहवीं शताब्दी (विक्रम) के उत्तर भाग में रखा जा सकता है। अनुमान है कि पाटन भण्डार से उपलब्ध धर्मशर्माभ्युदय की सं० १२८७ की प्रति सर्वप्रथम है अतः विद्वानों का मत है कि उक्त काव्य की रचना सं० १२५७ से १२८७ के बीच कभी हुई है ।' हरिचन्द्र नाम के अनेक विद्वान् संस्कृत साहित्य में हो गये हैं पर ये उनसे भिन्न और परवर्ती विद्वान् कवि थे। सनत्कुमारचरित:
यह एक उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य है। इसमें सनत्कुमार चक्रवर्ती का चरित मनोहर शैली में वर्णित है। इस महाकाव्य में २४ सर्ग हैं। इस काथ्य में 'घटनाओं का आधिक्य, उनका समुदित विकास तथा पात्रों की कर्मशीलता के कारण नाटक पढ़ने जैसा आनन्द मिलता है।
__कथावस्तु इस प्रकार प्रारम्भ होती है : १-३ सर्ग में कांचनपुर का नरेश 'विक्रमयश अपने नगर के वणिक नागदत्त की सुन्दर पत्नी विष्णुश्री को अपहरण कर उसके प्रेमवश हाकर अपनी अन्य रानियों की उपेक्षा करता है। रानियाँ मान्त्रिक विधि से विष्णुश्री को मरवा डालती हैं। राजा उसके अन्तिम दर्शन करने श्मशान जाता है पर विष्णुश्री के शव से भयंकर दुगन्ध के कारण विरक्त होकर तपस्या कर स्वर्ग जाता है। ४-६ सर्गों में विक्रमयश और नागदत्त के जीवों में देव और मनुष्य भवों में प्रतिशोध का वर्णन है । ७वे सर्ग में विक्रमयश का जीव हस्तिनापुर के राजा के कुमार के रूप में उत्पन्न होता है। आठवे सग में उसका नामकरण सनत्कुमार और युवक होने पर उसे युवराज बनाने का
१. जैन सन्देश, शोधाङ्क ७, पृ. २५१-२५४, पं० अमृतलाल शास्त्री का लेख :
महाकवि हरिचन्द्र. २. जिनरस्नकोश, पृ० ४१२; विशेष परिचय के लिए देखें-तेरहवीं-चौदहवीं
शताब्दी के जैन संस्कृत महाकाव्य (डा. श्यामशंकर दीक्षित), पृ. २२२-२४९.
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