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ललित वाङ्मय नेमिनिर्वाण, योगशास्त्र, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित प्रभृति जैन ग्रन्थों का तथा रघुवंश, कुमारसंभव, नागानन्दनाटक, हर्षचरित, कादम्बरी, दशकुमारचरित, गउडवह, शिशुपालवध', नलचम्पू , नैषधीयचरित, धन्यालोक, काव्यप्रकाश तथा हिन्दूपुराण, ज्योतिष, आयुर्वेद, कामशास्त्र, कोष, व्याकरण एवं अलंकारशास्त्र के ग्रन्थों का गहन अध्ययन किया था और धर्मशर्माभ्युदय की रचना में घोर परिश्रम किया था। इसीलिए वे अपनी ग्रन्थप्रशस्ति के अन्तिम पद में लिखते हैं-'भवन्तु च श्रमविदः सर्वे कवीनां जनाः२ अर्थात् सभी लोग कवियों के परिश्रम को समझें ।
हरिचन्द्र ने अलंकारशास्त्र का गम्भीर अध्ययन किया था पर रसध्वनि सम्प्रदाय के सार्थवाह-मुखिया थे ( रसध्वनेरध्वनि सार्थवाहः)। हरिचन्द्र की कीर्ति अपने समय में ही खूब फैल गई थी। वे सरस्वतीपुत्र समझे जाने लगे थे। यद्यपि वे अन्य कवियों से पीछे हुए थे पर उनकी गणना पहले होने लगी थी। ये अपने समय में ही एक अधिकारी विद्वान् हो गये थे। कश्मीर के एक मंत्री कवि जल्हण (१२४७ ई.) ने अपनी 'सुभाषितमुक्तावलि' में धर्मशाभ्युदय का एक पद्य उद्धत कर इनका 'चन्द्रसूरि' नाम से उल्लेख किया है । संभव है 'चन्द्र' इनका उपनाम रहा हो और जैन विद्वान् होने से इनकी 'सूरि' उपाधि हो।'
इस काव्य की प्रशस्ति में या अन्यत्र कहीं धर्मशर्माभ्युदय का रचनाकाल नहीं दिया गया। फिर भी इसका रचनाकाल अन्य साधनों से जाना जा सकता है । इस काव्य की प्राचीनतम हस्तलिखित प्रति पाटन भण्डार से मिली है जिसमें प्रति
१. जर्मन विद्वान् डा. ह. याकोबी ने वियना ओरियण्टल जर्नल, भाग ३, पृ.
१३८ प्रभृति में 'माघ और भारवि' लेख में शिशुपालवध के अनेक पयों तथा गउडवह के भनेक पद्यों से धर्मशर्माभ्युदय के पद्यों की भाषा और
भावों में साम्य दिखाया है। २. पद्य सं० १० की अन्तिम पंक्ति. ३. प्रशस्तिपद्य ७. १. वाग्देवतायाः समवेदि सभ्यैर्यः पश्चिमोऽपि प्रथमस्तनूजः (प्रशस्तिपद्य ६). ५. धर्म० श. के द्वि० सगं पद्य ४० से सु. मु. के पृ० १८५ में अंकित पद्य
से तुलना करेंसुहृत्तमावेकत उन्नतौ स्तनौ गुरूनितम्बोऽप्ययमन्यतः स्थितः । कथं भजे कान्तिमितीव चिन्तया ततान तन्मध्यमतीव तानवम् ॥
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