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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास श्रीवर्मा श्रीधरो देवोऽजितसेनोऽच्युताधिपः ।
पद्मनाभोऽहमिन्द्रोऽस्मान् पातु चन्द्रप्रभः प्रभुः॥ इसी क्रम के अनुसार इस काव्य में भी चन्द्रप्रभ का चरित दिया गया है और प्रशस्ति-पद्यों के अन्त में एक शार्दूलविक्रीडित में क्रमशः सातों भवों का उल्लेख किया है:
यः श्रीवर्मनृपो बभूव विबुधः सौधर्मकल्पे ततस्तस्माच्चाजितसेनचक्रभृदभूद्यश्चाच्युतेन्द्रस्ततः । यश्चाजायत पद्मनाभनृपतिर्यो वैजयन्तेश्वरो,
यः स्यात्तीर्थकरः स सप्तमभवे चन्द्रप्रभः पातु नः॥ ग्रन्थ के प्रारम्भ में ६ पद्यों में मंगलाचरण, दो पद्यों में सजन-दुर्जन चर्चा तथा दो में अपनी लघुता के बाद पाँचवें भव के जीव पद्मनाभ की कथा से विषयवस्तु प्रारम्भ होती है ( १ सर्ग)। पद्मनाभ श्रीधर मुनि से अपने पूर्व भवों को सुनता है ( २ सर्ग)। इसके बाद चन्द्रप्रभ के सातवें भव पूर्व के जीव श्रीवर्मा का वर्णन है जो तपस्या कर श्रीधर देव होता है (३-४ सग)। श्रीधर का जीव अजितंजय राजा और अजितसेना से अजितसेन राजकुमार होता है। उसे युवराज पदवी मिलती है। उसका चन्द्ररुचि नामक असुर अपहरण करता है (५वाँ सर्ग)। तत्पश्चात् असुर द्वारा अजितसेन को मनोरमा सरोवर में गिराया जाना, फिर अटवी पर्वत में भटकना, युद्ध-वर्णन, विवाह-वर्णन, फिर अपने नगर में लौट आना आदि वर्णन (६ सग); अजितसेन को लोकोत्तर ऐश्वर्यप्राप्ति, राज्याभिषेक, दिग्विजययात्रा आदि का वर्णन (७ सर्ग) दिया गया है । तत्पश्चात् वसन्त, उपवन-विहार, जलकेलि, सायंकाल, चन्द्रोदय, रात्रिक्रीड़ा, निशावसान-वर्णन (८-१० सर्ग), राजा का सभा में आना, गजक्रीड़ा देखना तथा गज द्वारा एक की मृत्यु देख वैराग्य, तपस्या-वर्णन, मरकर अच्युतेन्द्र होना, उसके बाद पद्मनाभ का जन्म (पाँचवें भव का जीव), पद्मनाभ का अपने पूर्व भवों के प्रति मुनि के उपदेश में सन्देह, वनकेलि गज का आना और उसे वश में करना (११ सर्ग), पृथ्वीपाल राजा के दूत का गज के लिए आना और तर्क प्रस्तुत करना, राजा के इशारे पर युवराज की उक्ति-प्रत्युक्तियाँ तथा मन्त्रविचारवर्णन (१२ सर्ग), पृथ्वीपाल पर अभियान, रास्ते में प्राप्त नदी (११ वर्ग), मणिकूट पर्वत एवं सेना संन्निवेश का वर्णन तथा सेनासहित पृथ्वीपाल नरपति का आगमन (१४ सर्ग), संग्राम तथा पृथ्वीपाल राजा का वध, शत्रु के कटे सिर को देखकर पद्मनाभ का वैराग्य और अपने पुत्र को राज्यभार देकर वपस्या,
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