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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के महाकाव्यों में भी नहीं मिलता। जैसे चण्डवृष्टि । इसका प्रयोग नेमिनिर्वाण के ७वें सर्ग के ४६वे पद्य में हुआ है।
प्रस्तुत महाकाव्य में अनुप्रास और यमक आदि अनेक शब्दालंकारों का तथा उपमा, दीपक, रूपक, श्लेष, परिसंख्या और विरोधाभास आदि अनेक अर्थालंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। इस काव्य में प्रधान रस शान्त है । महाकाव्यों में नायिका का वर्णन प्रायः नख से शिखा तक मिलता है किन्तु नेमिनिर्वाण में इस प्रकार का वर्णन कहीं भी नहीं है । यह इस काव्य की विशेषता है।
कथावस्तु-प्रथम २५ पद्यों में मंगलस्तुति के बाद दो पद्यों में सजन-खल की चर्चा की गई है । इसके बाद कथा इस प्रकार चलती है :
सुराष्ट्र देश में द्वारवती ( द्वारिका ) नगरी थी। उसका राजा समुद्रविजय कुशलता से पृथ्वी का शासन कर रहा था। एक समय उसने अपने अनुज वसुदेव के पुत्र गोविन्द ( श्रीकृष्ण ) को युवराज पद देकर राज्य का बोझ हल्का किया और पुत्रप्राप्ति के लिए बहुत समय तक अनेक प्रकार के व्रत किये [प्रथम सग ], एक समय वह सभा में बैठा था कि आकाश से भूमितल पर उतरती हुई सुराङ्गनाएँ दिखी। वे राजसभा में उतर कर राजा की जय बोली। उन्हें सुवर्णासनों पर बैठाया गया और आने का कारण पूछा। उन्होंने कहाअब से ६ माह बाद आपकी महारानी शिवा के गर्भ में २२वे तीर्थकर नेमि का जन्म होगा इसलिए देवराज इन्द्र ने महारानी की सेवा के लिए हमें भेजा है। वे महारानी की सेवा करने लगी। समय आने पर रात्रि में जिनमाता ने सोलह स्वप्न देखे [द्वितीय सर्ग], जिनमाता ने उन स्वप्नों को राजा से कहा और राजा ने उन स्वप्नों का फल प्रतापी पुत्र होने को कहा। रानी ने गर्भ धारण किया [ तृतीय सर्ग ], महारानी शिवा ने नव मास के बाद सकल लोकनन्दन नन्दन को जन्म दिया। लोक में बड़ा आनन्द हुआ, देवतागण जन्मकल्याण मनाने आये [चतुर्थ सर्ग], उन लोगों ने बालक जिन को प्रणाम कर पाण्डुक शिला पर ले जाकर उसका अभिषेक किया और उत्सव मनाया। पीछे वे लोग स्वर्ग लौट गये [पंचम स्वर्ग] | धीरे-धीरे बालक शैशव अवस्था को पार कर युवा अवस्था में आया। इसके बाद कवि ने छठे सर्ग के १७वे पद्य से वसन्त वर्णन, रैवतपर्वत वर्णन [ सप्तम सर्ग ], जलक्रीड़ा वर्णन [ अष्टम सर्ग ], सायंकाल तथा
१. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का
योगदान, पृ० २९७ प्रभृति.
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