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संख्या अधिक है । सलेख प्रस्तरमूर्तियों की धातुमूर्तियों की हजारों । १०वीं शती के प्रतिमाएँ होंगी जो सलेख न हों ।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
संख्या यदि सैकड़ों होगी तो सलेख बाद की बहुत ही कम ऐसी धातु
अद्यावधि प्राप्त सबसे प्राचीन प्रतिमा लोहानीपुर पटना से है जो पाषाण की है । यद्यपि इस पर कोई लेख नहीं पर विशेष पालिश व चमक के आधार पर इसका समय मौर्यकालीन ( ३०० ई० पू० ) माना गया है। मथुरा से जैनों की अनेक सलेख मूर्तियाँ मिली हैं जो तीन मुख्य भागों में बाँटी जा सकती हैं : तीर्थकर प्रतिमाएँ, देवियों की मूर्तियाँ और आयागपट्ट । इन पर उत्कीर्ण लगभग सौ लेखों से हमें ऐतिहासिक, धार्मिक एवं सामाजिक महत्त्व की बहुत सामग्री मिलती है । इनमें उल्लिखित शक एवं कुषाण राजाओं के नाम तथा तिथियों से हमें उनके क्रमिक इतिहास तथा राज्यकाल की अवधि का पता चलता है | सामाजिक इतिहास की दृष्टि से भी ये लेख बड़े महत्व के हैं। इनमें गणिका, नर्तकी, लुहार, गन्धिक, सुनार, ग्रामिक, श्रेष्ठी आदि जातियों और वर्ग के लोगों के नाम मिलते हैं, जिन्होंने मूर्ति आदि का निर्माण, प्रतिष्ठा एवं दान कार्य किये थे । इससे विदित होता है कि २ हजार वर्ष पहले जैनसंघ में सभी व्यवसाय के लोग बराबरी से धर्माराधन करते थे । अधिकांश लेखों में दातावर्ग के रूप में स्त्रियों की प्रधानता थी जो बड़े गर्व के साथ अपने पुण्य का मागधेय अपने आत्मीयों को बनाती थीं। इन लेखों से एक और महत्त्व की बात सूचित होती है कि उस समय लोग व्यक्तिवाचक नाम के साथ माता का नाम जोड़ते थे, जैसे मोगलिपुत्र, कौशिकिपुत्र आदि ।
जैनधर्म के प्राचीन इतिहास की दृष्टि से मथुरा ये लेख और भी बड़े महत्व के हैं। इन लेखों में मूर्तियों के संस्थापकों ने न केवल अपना ही नाम उत्कीर्ण कराया है बल्कि अपने गुरुओं का भी जिनके कि सम्प्रदाय के वे थे । लेखों में अनेक गणों, कुलों और शाखाओं के नाम भी दिये गये हैं जो जैनागम कल्पसूत्र और नन्दिसूत्र की पट्टावली से मिलते हैं । उस काल में इन गणों आदि के अस्तित्व से उस महान् युग का, उसके जीवन की गतिविधि का तथा साथ ही सम्प्रदायों की परम्परा को रखने में विशेष सावधानी का अनुमान कर सकते हैं ।
गुप्तकाल में हमें जैन मूर्तियों के न केवल उच्चतम उदाहरण मिलते हैं बल्कि उनसे उस काल के इतिहास की जटिल समस्याओं का समाधान करने में महत्वपूर्ण योगदान मिलता है । इतिहासज्ञों के बीच महाराजाधिराज रामगुन के सम्बन्ध में गत ५० वर्षों से काफी वादविवाद चल रहा था। उसके अस्तित्व को बतलाने के
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