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ऐतिहासिक साहित्य भाषाओं में विभक्त है उसी तरह यह काव्य भी। इस काव्य के २८ सर्गों में से प्रथम २० सर्ग संस्कृत में हैं जो संस्कृत व्याकरण के नियमों को उदाहृत करते हैं और अन्तिम ८ सर्ग प्राकृत भाषा में प्राकृत व्याकरण के नियमों को उदाहृत करने के लिए रचे गये हैं। इन आठ सर्गों के अन्तिम भाग को कुमारपालचरित (कुमरवालचरिय) नाम से भी कहते हैं। संस्कृत द्वथाश्रय का परिमाण २८२८ श्लोक-प्रमाण और प्राकृत द्वयाश्रय का १५०० श्लोकप्रमाण है।
संस्कृत-प्राकृतमय इस काव्य का वही महत्त्व एवं स्थान है जो संस्कृत में भट्टिकाव्य का है। ___ यद्यपि यह ग्रन्थ संस्कृत-प्राकृत व्याकरण के नियमों के साहित्यिक उदाहरणों को प्रस्तुत करने के लिए निर्मित हुआ था फिर भी इसमें इन मर्यादाओं के भीतर कुछ अपवादों को छोड़ कामचलाऊ ढंग से गुजरात के चौलुक्य वंश का इतिहास प्रस्तुत किया गया है । आचार्य हेमचन्द्र का अभिप्राय इस दो आश्रयवाले काव्य से एक ओर व्याकरण के नियमों को समझाने का तो दूसरी ओर ऐतिहासिक काव्य लिखने अर्थात् चौलुक्य वंश का गुणवर्णन करने का था और विशेषकर उस वंश के नृप सिद्धराज जयसिंह और कुमारपाल का ।
विषयवस्तु-संस्कृत भाग के प्रथम सर्ग में अणहिलपुर में चौलुक्य वंश की उत्पत्ति और उसके प्रथम नरेश मूलराज के गुणों का वर्णन दिया गया है। द्वितीय से पंचम सर्ग तक मूलराज के राज्यकाल का इतिहास प्रस्तुत किया गया है । छठे सर्ग में मूलराज के उत्तराधिकारी चामुण्डराज तथा सातवे में दुर्लभराज और उसके बड़े भाई वल्लभराज का वर्णन है। अष्टम सर्ग में दुर्लभराज के उत्तराधिकारी भतीजे भीम के राज्यकाल का वर्णन है। नवम में भीम, भोज तथा चेदिराज के बीच युद्ध का वर्णन है। इसी सगे में भीम के पुत्र क्षेमराज और कर्ण का वर्णन और कर्ण की राज्यप्राप्ति तथा मयणल्ल देवी से विवाह का वर्णन है। दसवें सर्ग में कर्ण द्वारा पुत्रप्राप्ति के लिए लक्ष्मी की उपासना और पुत्रोत्पत्ति का वरदान पाना वर्णित है। ग्यारहवें में जयसिंह की उत्पत्ति, रामारोहण, कर्ण का स्वर्गवास तथा जयसिंह की विजय का वर्णन है ।
१. संस्कृत व्याश्रय पर अभयतिलकगणि ने वि० सं० १३१२ में टीका लिखी
है जिसका संशोधन लक्ष्मीतिलकगणि ने किया है। प्राकृत व्याश्रय पर पूर्णकलशगणि ने वि० सं० १३०७ में टीका लिखी है।
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