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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास संयोजन में बहुत-सी सामग्री मिल जाती है। वैदिक साहित्य से सम्बद्ध ब्राह्मणों
और उपनिषदों में 'गाथा नाराशंसी' अर्थात् प्रसिद्ध वीर व्यक्तियों की प्रशंसा के गीत का बहुत बार उल्लेख मिलता है। ये गीत ऋग्वेद की दान स्तुतियों और अथर्ववेद के अनेक सूक्तों से सम्बद्ध हैं और पश्चात्कालीन वीर गाथाओं में वर्णित शौर्य घटनाओं के प्राग्रुप भी। इनका विषय योद्धाओं और नरेशों के गौरवमय कार्यों का ही वर्णन है। कालान्तर में ये ही गाथाएँ किसी एक व्यक्तिविशेष अथवा घटनाविशेष को लेकर बहुत बड़े महाकाव्यों में विकसित हुई।
पश्चात्काल में गुमयुग के लगभग ये प्रशस्तियाँ हमें उत्कीर्ण लेखों के रूप में तथा स्वतन्त्र गुणवचन के रूप में भी प्राप्त होती हैं। समुद्रगुप्त के सम्बन्ध की हरिषेण-प्रशस्ति इलाहाबाद के एक स्तम्भ से प्राप्त हुई है। स्कन्दगुप्त का गिरनार-शिलालेख और मन्दसौर के सूर्यमन्दिर की वत्सभट्टि-प्रशस्ति भी इसी प्रकार की है। सिद्धसेन दिवाकरकृत गुणवचनद्वात्रिंशिका उत्कीर्ण लेख न होने पर भी इसी प्रकार की प्रशस्ति है जिसमें चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का गुणकीर्तन किया गया है। पश्चात्काल में मन्दिरों, मूर्तियों आदि स्थापत्यों के स्मृतिरूप में अनेक प्रकार की प्रशस्तियाँ लिखने की परम्परा चलने लगी। जैन मनीषी इस विषय में पीछे न रहे । दक्षिण भारत, गुजरात, राजस्थान तथा मध्य भारत में जैन विद्वानों ने एक विशिष्ट प्रकार की भी प्रशस्तियाँ लिखी जिन्हें ग्रन्थ-प्रशस्ति अर्थात् पुस्तक की स्तुतिगाथा कहते हैं। ये सामान्यतः ग्रन्थों के अन्त में और कभी-कभी ग्रन्थ के प्रारम्भ में भी या पुष्पिका के रूप में ग्रन्थ के किसी अध्याय या सब अध्यायों के अन्त में पाई जाती हैं। ई० छठी शती के पहले लिखे गये ग्रन्थों में हमें ये प्रशस्तियाँ प्रायः नहीं मिलतीं परन्तु ७वीं शती से आगे इनका अधिक और सामान्य प्रयोग होने लगा। ___ काव्यात्मक आदर्श प्रशस्तियाँ भी जैन विद्वानों ने लिखी हैं। इनका ऐतिहासिक एवं काव्यात्मक महत्त्व विभिन्न प्रकार का होता है। कोई-कोई प्रशस्तियाँ बहुत ही छोटी होती हैं अर्थात् कुछ पंक्तियों की ही, तो कितनी ही सौ-सौ पंक्तियों या श्लोकों जैसी लम्बी होती हैं। कुछ गद्य में होती हैं तो कुछ सारी की सारी पद्य में ही। कोई-कोई गद्य और पद्य मिश्रित भी। ऐतिहासिक दृष्टि से इन प्रशस्तियों में महत्त्व का अंश साधारणतया वंशपरिचय, शौर्य अथवा धर्मकार्यवर्णन होता है। अनेक प्रशस्तियाँ स्थापत्य से सम्बद्ध हैं जिनमें स्थापत्य निर्माता या दाता का वृत्तान्त दिया जाता है। यदि निर्माता या दाता तत्कालीन राजा नहीं है तो उस प्रशस्ति में तत्कालिक राजा के सम्बन्ध में कुछ न कुछ उल्लेख
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