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ऐतिहासिक साहित्य
४४७ लिखित प्रतियाँ भेंट की थी। डूंगर ने अपने भाई परबत के साथ मिलकर १५९१ में संडेर में एक ज्ञानभण्डार बनाया । डूंगर का पुत्र कान्हा हुआ।
इस तरह इस प्रशस्ति में एक धनाढ्य कुटुम्ब के ३०० वर्ष तक का संक्षिप्त इतिहास दिया गया है। सं० १३७७ में और १४६८ में गुजरात में बड़ा दुष्काल पड़ा था। इस बात का पता इस प्रशस्ति से लगता है। सं० १३६० में कर्णदेव का राज्यशासन बहुत दूर तक था, इस बात का पता भी इस प्रशस्ति से लगता है। पेथड सेठ द्वारा निकाले गये संघ का वर्णन तत्कालीन रचना पेथडरास से मालूम होता है और इससे दो वर्ष बाद लिखी प्रशस्ति के वर्णनों की पुष्टि होती है। ___ इस प्रकार की अन्य प्रशस्तियों से बहुत-सी ऐतिहासिक बातें जानी जा सकती हैं।
इन पुस्तकप्रशस्तियों से श्रीमाल, पोरवाड, ओसवाल, डीसावाल, पल्लीवाल, मोढ, वायडा, धाकड, हूंबड, नागर आदि गुजरात, मध्य भारत की प्रधानप्रधान वैश्य जातियों एवं कुटुम्बों का प्रामाणिक परिचय भी मिल जाता है।।
पुस्तकप्रशस्ति का एक प्रकार लिपिकारप्रशस्ति भी बड़े महत्त्व की है। पुराने समय में ग्रन्थ ताड़पत्र पर लिखा जाता था। ताड़पत्र को वृक्ष से लाकर बहुत श्रम और समय से तैयार किया जाता था। उसकी स्याही बनाने की . प्रक्रिया भिन्न होती थी। लिखने और नकल करनेवालों का एक वर्ग होता था। इसमें अनेक विद्वान् , पण्डित और राज्याधिकारी भी होते थे । कायस्थ, नागर और कहीं जैन लेखक भी काम करते थे। पाटन आदि के भण्डारों में ताड़पत्र की पुस्तकें हैं। उनमें से कई मन्त्री या मन्त्री-पुत्र के हाथ की लिखी हैं तो कई दण्डनायक और आक्षपटलिक के हाथ की लिखी। अधिकांश जैन यति लेखनकला में प्रवीण थे और अपने उपयोग के लिए बहुत पुस्तकें लिखते थे। बड़ेबड़े आचार्य नियमित लेखन कार्य चालू रखते थे। लिपिकार अपने हाथ से लिखे ग्रन्थों के अन्त में लिखने का समय, स्थान, अपना नाम आदि का उल्लेख पाँचदस पंक्तियों में कर देते थे। इन लेखों को पुष्पिकालेख भी कहते हैं। इन पुष्पिकालेखों में अनेक राजा, राजस्थान, समय, पदवी, अमात्य आदि प्रधान राज्याधिकारियों के विषय में तथा दूसरी ऐतिहासिक बातों का उल्लेख मिलता है। ___ यहाँ इतिहास निर्माण में पुष्पिकालेखों के प्रयोग का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जाता है।
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