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ऐतिहासिक साहित्य
४५१ सिद्धान्त भास्कर के प्रथम भाग में तथा जैनहितैषी, वर्ष ६, इण्डियन एण्टीक्वेरी, भाग २०-२१ तथा भट्टारक सम्प्रदाय में मिलती हैं।
उक्त स्वतन्त्र रचनाओं के अतिरिक्त शिलालेखों और ताम्रपत्रों के प्रारम्भ या अन्त में बहुधा जैनाचार्यों तथा धर्मगुरुओं की विस्तीर्ण पट्टावलियाँ दी गई हैं : जैसे—जैनशिलालेखसंग्रह ( डा० हीरालाल जैन द्वारा सम्पादित ), भाग १ के श्रवणबेलगोला से उपलब्ध लेख संख्या १ और १०५ तथा ४२, ४३, ४७ और ५० में दिग० सम्प्रदाय के आचार्यों की, शत्रुजयतीर्थ के आदिनाथ मन्दिर के शिलालेख (वि० सं० १६५० ) में तपागच्छ की पट्टावली और अणहिलपाटन के एक लेख (एपि० इण्डिका, भा० १, पृ० ३१९-३२४) में खरतरगच्छ के उद्योतनसूरि से लेकर जिनसिंहसूरि तक के ४५ आचार्यों की पट्टावलियाँ दी गई हैं।
प्रत्येक संघ-गण और गच्छ की पट्टावली में भग० महावीर से लेकर आज तक जैन पट्टधर आचार्यों की श्रृंखलाबद्ध परम्परा सुरक्षित है और गुरु-शिष्य परम्परा के रूप में उल्लेख करते हुए जैन संघ के आचार्यों के यशस्वी कार्यों का विवरण गुम्फित किया गया है। यहाँ हम कुछ पट्टावलियों या गुर्वावलियों का परिचय देते हैं। विचारश्रेणी या स्थविरावली :
इसमें पट्टधर आचार्यों की परम्परा के साथ कुछ प्राचीन नरेशों की परम्परागत तिथियों सहित सूची दी गई है जो इतिहास की दृष्टि से बड़ी महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई है। यह 'जं रयणिं' से प्रारम्भ होनेवाली कुछ प्राकृत गाथाओं की वृत्ति के रूप में संस्कृत गद्य में लिखी गई रचना है। इसमें भग० महावीर और विक्रमादित्य के बीच ४७० वर्ष का अन्तर बतलाया गया है। इसमें प्रसिद्ध
1. भाग २०, पृ० ३४१ में Two Pattavalis of the Saraswati
Gaccha of Digambara Jains और भाग २१, पृ० ५७ में Three further Pattavalis of Digambaras. जिनरत्नकोश, पृ० ३५२; जैन साहित्य संशोधक, खण्ड २, अंक ३-४, सन् १९२५; इसका संक्षिप्त विवरण जर्नल ऑफ दि बोम्बे ब्रांच मऑफ रोयल एशियाटिक सोसाइटी, भाग ९, पृ० १४७ में दिया गया है। लेखक ने अपने ग्रन्थ Political History of Northern India from Jain Sources में उसका अच्छा उपयोग किया है।
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