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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास दिग० सम्प्रदाय की पट्टावलियों का प्राचीन रूप कुछ प्राचीन शिलालेखों में तथा तिलोयपण्णत्ति, घटखण्डागम के वेदनाखण्ड की धवला टीका, कसायपाहुड की जयधवला टीका, जिनसेनकृत आदिपुराण, द्वि० जिनसेनकृत हरिवंशपुराण, गुणभद्रकृत उत्तरपुराण एवं इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार (लग० १६वीं शती) में मिलता है। इन सभी में दी हुई आचार्यपरम्पराएँ केवली, चतुर्दशपूर्वधर, दशपूर्वधर, एकादशांगधर आदि आचार्यों तक की हैं ।
मध्यकाल में पश्चिम और दक्षिण भारत में जैनाचार्यों के विविध संघ, गण, गच्छ उदय हुए और उनका प्राचीनकाल की पट्टधरपरम्परा से सम्बन्ध बतलाने के लिए अनेक प्रकार की श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय की पट्टावलियाँ और गुर्वावलियाँ रची गई। वर्तमान काल में इन पट्टावलियों के अच्छे खासे संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनमें श्वेताम्बर पट्टावलियों के उल्लेखनीय संग्रह हैं-मुनि दर्शनविजय द्वारा सम्पादित पट्टावलीसमुच्चय २ भाग; मुनि जिनविजय जी द्वारा संपादित विविधगच्छीय पट्टावलीसंग्रह एवं खरतरगच्छ बृहद्गुर्वावलि; पं० कल्याणविजयगणिकृत पट्टावली पराग संग्रह और मुनि हस्तिमल्ल द्वारा संकलित पट्टावली प्रबंध संग्रह आदि । दिगम्बर सम्प्रदाय की अनेक पट्टावलियाँ यथा सेनगण पहावली, नन्दिसंघ बलात्कारगण सरस्वतीगच्छ पट्टावली, मूल (नन्दि ) संघ की दूसरी पट्टावली, शुभचन्द्राचार्य की पट्टावली एवं काष्ठासंघ गुर्वावलि आदि जैन
१. डा० विद्याधर जोहरापुरकर सम्पादित 'भट्टारक सम्प्रदाय के प्रारम्भ में इनमें
से कुछ का संक्षिप्त विवरण दिया गया है। २. पट्टावलियाँ संस्कृत, प्राकृत, राजस्थानी, गुजराती एवं कन्नड भाषाओं में
लिखी हुई मिलती हैं। ३. इण्डियन एण्टीक्वेरी, भाग ११, पृ० २४५-२५६ में Extracts from
the Historical Records of the Jains के अन्तर्गत खरतरगच्छ पट्टावली (सं० १८७६) में ७० श्वेता० पट्टधरों का तथा तपागच्छ पट्टावली (सं० १७३२) में ६१ पट्टधरों का परिचय दिया गया है; इण्डियन एण्टीक्वेरी, भाग २३, पृ० १६९-१८२ में Pattavalis of the Anchala Gaccha and other Gacchas में ७ पट्टावलियाँ
और इण्डियन एण्टीक्वेरी, भाग १९, पृ० २३३-२४२ में Pattarali of Upakesha Gaccha दी गई है।
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