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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास एवं अनेक जैन श्रावकों के विषय में जानकारी मिलती है। सामाजिक और भौगोलिक परिस्थिति के ज्ञान के लिए ये प्रशस्तियाँ बड़ी उपयोगी हैं ।
उदाहरण के लिए एक प्रशस्ति का परिचय यहाँ दिया जाता है ।
सण्डेर ग्राम के रहनेवाले परबत और कान्ह नामक दो भाइयों ने सं० १५७१ में सैकड़ों ग्रन्थ अपने खर्च से लिखाकर एक बड़ा ज्ञानभण्डार स्थापित किया था। उनके इस कार्य को बतलानेवाली ३३ पद्यों की एक प्रशस्ति उनके द्वारा लिखाई गई प्रत्येक पुस्तक के अन्त में दी गई है। पूना, भावनगर, पाटन और पालीताणा के जैन भण्डारों की हस्तप्रतियों में यह मिलती है। इस प्रशस्ति का परिचय यहाँ दिया जाता है।
पूर्वकाल में संडेर ग्राम में पोरवाड जाति का आभू नामक सेठ था। उसकी चौथी पीढ़ी में चण्डसिंह नामक पुरुष हुआ जिसके ७ प्रतापी पुत्र थे । इन पुत्रों में सबसे बड़ा पेथड था। पेथड का उस स्थान के जागीरदार से किसी कारण झगड़ा हुआ और इस कारण उसने वह स्थान छोड़ दिया और बीजा नामक क्षत्रिय वीर की सहायता से उसने एक बीजापुर नामक नया नगर बसाया। उस ग्राम में रहने आनेवाले लोगों से उसने कुछ चन्दा इकट्ठा कर एक जैनमन्दिर बनवाया और वहाँ पीतल की महावीर जिन की बड़ी विशाल मूर्ति स्थापित की। पेथड ने आबू पर वस्तुपाल-तेजपाल के मन्दिरों का भी जीर्णोद्धार कराया। कर्णदेव बघेला के राज्य में सं० १३६० में अपने ६ भाइयों के साथ उसने शत्रुजय, गिरनार आदि की यात्रा के लिए एक संघ निकाला। इसके बाद उसने दुबारा ६ बार इन तीर्थों की संघ के साथ यात्रा की। सं० १३७७ में गुजरात में बड़ा दुष्काल पड़ा। उस समय उसने लाखों दीनजनों को अन्नदान करके प्राण बचाये। हजारों स्वर्ण मुहर खर्चकर उसने चार ज्ञानभण्डार भी स्थापित किये। इस पेथड से ४थी पीढी में मंडलिक नामक व्यक्ति ने अनेक मन्दिर, धर्मशाला आदि धर्मस्थान बनवाये। सं० १४६८ में दुष्काल पड़ा तो उसने लोगों को खूब अन्न देकर सुखी किया। सं० १४७७ में बड़ा संघ निकालकर शत्रुनय आदि तीर्थों की स्थापना की। उसका पुत्र ठाइआ और उसका पुत्र विजिता हुआ। उसके तीन पुत्र परबत, डूंगर और नरबद । परबत और डूंगर दोनों भाइयों ने मिलकर सं० १५५९ में एक विद्वान् को उपाध्याय पदवी देने में बड़ा महोत्सव किया था। सं० १५६० में जीरावला और आबू आदि स्थानों की यात्रा की थी। गंधार बन्दरगाह में जाकर वहाँ के उपाश्रयों के लिए कल्पसूत्र की
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