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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रहते हैं ( २३)। सूर्य की दीप्ति से भो तुम्हारी दीप्ति उत्तम है ( २४ )। तुम विद्वानों को सभा में वक्तृत्व के लिए प्रसिद्ध हो ( २५)। तुम्हारी विवादशक्ति, साहस, पत्ररचना, मंत्रिपरिषद् तुम्हारे विरोधियों के लिए ईर्ष्या के विषय हैं (२६)। तुम्हारा जन्म कलि के क्रम को व्यतिक्रम (विक्रम ) कर हुआ है ( २७) । तुम्हारी सर्वव्यापी प्रभुता अवर्णनीय है ( २८)।
इन पद्यों के संकेतों को डा० हीरालाल जैन ने गुतवंशी सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के शिलालेखों, मुद्राओं और कालिदास के रघुवंशमहाकाव्य के पदों से मिलाकर इस बात को सन्देहरहित सिद्ध किया है कि यह उक्त नाम वाले गुमवंशी नरेश की हो प्रशस्ति है। इसके रचयिता कवि सिद्धसेन हैं जो जैन और जैनेतर उल्लेखों से विक्रमादित्य के समकालीन सिद्ध होते हैं। इस तरह यह समकालीन कवि द्वारा प्रस्तुत प्रशस्ति उसी तरह महत्व की है जिस तरह इलाहाबाद में उत्कीर्ण कवि हरिषेणकृत समुद्रगुप्त-प्रशस्ति ।
गुजरात के कवियों ने चौलुक्य वंश और उसके प्रसिद्ध नृप जयसिंह सिद्धराज एवं कुमारपाल के राज्यकाल का विवरण देने के लिए अनेक ऐतिहासिक काव्य लिखे । उनमें प्रथम है द्वयाश्रयमहाकाव्य ।
द्वथाश्रयमहाकाव्य:
इस काव्य' की रचना हेमचन्द्रसूरि ने अपने व्याकरण-ग्रन्थ 'सिद्धहेम. शब्दानुशासन' या 'हैमव्याकरण' के नियमों को भाषागत प्रयोग में समझाने एवं उदाहृत करने के लिए की है। जिस तरह हैमव्याकरण संस्कृत और प्राकृत
9. A Contemporary Ode to Chandra Gupta Vikrama
ditya, मध्यभारती पत्रिका, १, जबलपुर विश्वविद्यालय, जुलाई १९६२. २. संपा०-ए० वी० कथवटे, सर्ग १-२० (संस्कृत), २ भाग, बम्बई संस्कृत
सिरीज, १८८५, १९१५ ओर स. पा० पण्डित, सर्ग २१-२८ (प्राकृत), उसी सिरीज में, १९००; द्वितीय संस्करण : संपा०-५० ल• वैद्य, परिशिष्ट के साथ में हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण, उसी ग्रन्थमाला से १९३६ में प्रकाशित; प्रॉ० मणिलाल नभुभाई द्विवेदीकृत संस्कृत द्वयाश्रय का भाषान्तर (गुजराती) १८९३ में प्रकाशित; प्रो. केशवलाल हिम्मतलाल कामदारकृत हेमचन्द्रनु द्वयाश्रयकाव्य १९३६ में प्रकाशित भादि.
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