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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास शीलवती, अश्वावबोध, भ्राता, धात्रीसुत और धात्री ये आठ अधिकार हैं जो १६ उद्देशों में विभक्त हैं। ___ सुदर्शना सिंहलद्वीप में श्रीपुरनगर के राजा चन्द्रगुप्त और रानी चन्द्रलेखा की पुत्री थी। पढ़-लिखकर वह बड़ी विदुषी और कलावती हो गई । एक बार उसने राजसभा में ज्ञाननिधि पुरोहित के मत का खण्डन किया। धर्मभावना से प्रेरित हो वह भृगुकच्छ की यात्रा पर गई और वहाँ उसने मुनिसुव्रत तीर्थकर का मन्दिर तथा शकुनिकाविहार नामक जिनालय का निर्माण कराया।
सुदर्शना का यह चरित्र हिरण्यपुर के सेठ धनपाल ने अपनी पत्नी धनश्री को सुनाया। कथा में प्रसंगवश अनेक स्त्री-पुरुषों के तथा नाना अन्य घटनाओं के रोचक वृत्तान्त शामिल हैं।
रचयिता एवं रचनाकाल--इसके रचयिता तपागच्छीय जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य देवेन्द्रसूरि हैं। कर्ता ने अपने विषय में कहा है कि वे चित्रापालकगच्छीय भुवन . गुरु. उनके शिष्य देवभद्र मुनि और उनके शिष्य जगञ्चन्द्रसूरि के शिष्य थे। उनके एक गुरु भ्राता विजयचन्द्र सूरि ने इस ग्रन्थ के निर्माण में सहायता दी थी। कहा जाता है कि देवेन्द्र सूरि को गुर्जर राजा की अनुमतिपूर्वक वस्तुपाल मंत्री के समक्ष आबू पर सूरिपद प्रदान किया गया था। देवेन्द्रसूरि ने वि० सं० १३२३ में विद्यानन्द को सूरिपद प्रदान किया था तथा सं० १३२७ में स्वर्गवासी हुए थे अतः इस कथाग्रन्थ की रचना इस समय से पूर्व हुई है। इनके अन्य ग्रन्थों में पञ्चनव्यकर्मग्रन्थ सटीक, तीन आगमों पर भाष्य, श्राद्धदिनकृत्य सवृत्ति तथा दानादिकुलक मिलते हैं। ___ अन्य तीर्थों में दक्षिण भारत के श्रवणवेल्गोल के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए गोमटेश्वरचरित्र' नामक एक संस्कृत रचना का उल्लेख मिलता है । इसी तरह मध्य प्रदेश के एक अन्य तीर्थ सुवर्णाचल 'सोनागिर' के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए देवदत्त दीक्षित ने सं० १८४५ में स्वर्णाचलमाहात्म्य' की रचना
१. जिनरत्नकोश, पृ० ४४४, आत्मवल्लभ ग्रन्थ सिरीज, बलाद (अहमदाबाद)
से सन् १९३२ में प्रकाशित; कथाग्रन्थ की अन्य विशेषताओं के लिए
देखें-प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० ५६१-५६६. २. जिनरत्नकोश, पृ० १११. ३. बाब छोटेलाल जैन स्मृतिग्रन्थ, पृ० ११५,
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