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कथा-साहित्य
३८५ भेजा पर उसने राजपुत्री और धन के लोभ से उसे कपट से समुद्र में गिरा दिया। इसके बाद राजपुत्री से प्रेम करना चाहा पर वह भी उसे झूठा आश्वासन दे अपनी शील की रक्षा करने के लिए चक्रेश्वरी देवी की उपासना में लग गई। उधर महीपाल समुद्र में गिरकर एक बड़ी मछली के सहारे किनारे आ लगा और वहाँ उसने रत्नसंचयपुर के नरेश की पुत्री शशिप्रभा के साथ विवाह किया और उससे उसे तीन चमत्कारी वस्तुएं मिली : पहली जादू की शय्या जिस पर बैठकर वह कहीं भी जा सकता था, दूसरी जादू की लकड़ी जिससे वह अजेय बन सका और तीसरी एक सर्वकामित मन्त्र जिससे वह मन चाहे रूप धारण कर सकता था। महीपाल को उसी नगर में अपनी दोनों पूर्व पत्नियाँ भी मिल गई। उन विद्याओं के सहारे उसने कई चमत्कार दिखाये। इससे प्रसन्न होकर वहाँ के राजा ने उसे अपना मन्त्री बना लिया तथा अपनी पुत्री चन्द्रश्री से विवाह कर दिया। इसके बाद वह चारों पत्नियों को लेकर अपनी पूर्व नगरी उज्जयिनी के राजा के पास लौट आया और राजा ने उसके चमत्कारों से उसका सम्मान किया। पीछे महीपाल ने जैनी दीक्षा ले मोक्षपद प्राप्त किया।
___ महिवालकहा-उक्त कथानक पर यह सर्वप्रथम रचना है। जो प्राकृत की १८२६ गाथाओं में है। इसमें अध्याय आदि का विभाजन नहीं है । इसकी भाषा सरस एवं सरल है। बीच-बीच में अनेक उपदेश और अवान्तर कथाएँ दी गई हैं। वर्णन-प्रसंग में नवकार-मन्त्र का प्रभाव, चण्डीपूजा, शासनदेवता, यक्षकुलदेवतादि की पूजा, बलि आदि प्रथाओं का दिग्दर्शन कराया गया है। इसके रचयिता वीरदेवगणि है। ग्रन्थ के अन्त में चार गाथाओं द्वारा उन्होंने अपनी गुरुपरम्परा मात्र दी है। तदनुसार चन्द्रगच्छ में क्रमशः देवभद्रसिद्धसेन-मुनिचन्द्रसूरि हुए। उन्हीं के शिष्य प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखक हैं। इस रचना का कालसवत् कहीं नहीं दिया गया पर रचयिता के दादा गुरु और परदादा गुरु की कई रचनाएँ मिलती हैं। चन्द्रगच्छ से सम्बन्धित देवभद्र ने प्राकृत श्रेयांसचरित्र की रचना (वि० सं० १२४८ से पहले) की थी और सिद्धसेन ने सं० १२४८ से पहले पद्मप्रभचरित्र की तथा उक्त संवत् में प्रवचनोद्धार पर तत्त्वविकाशिनी टोका और स्तुतियाँ लिखी थीं। संभवतः इन्हीं सिद्धसेन
१. जिनरत्नकोश, पृ. ३०१, हीरालाल देवचन्द शाह, शारदा मुद्रणालय,
पानकोर नाका, अहमदाबाद, सं. १९९८. २. जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ३३८.
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