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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
ग्रन्थनाम
लेखक का नाम शरदुत्सवकथा
भट्टारक सिंहनन्दि श्रवणद्वादशीकथा'
श्रुतसागर षोडशकारणकथा
श्रुतसागर सप्तदशप्रकारकथा'
माणिक्यसुन्दर सिद्धचक्रकथा
शुभचन्द्र, अज्ञात परीकथाएँ:
विकमादित्यविषयक कथानक-वि० सं० १२०० से १५०० के बीच तीन सौ वर्षों में विक्रमादित्य की परम्परा को लेकर जैन कवियों ने बहुविध साहित्य का सृजन किया है। वि० सं० १२०० से पूर्व जैन साहित्य में विक्रम के उल्लेख बहुत ही थोड़े मिले हैं। यद्यपि उसके नगर उज्जयिनी का प्राचीन जैन साहित्य में प्रचुर प्रमाण में वर्णन किया गया है। विक्रम सम्बन्धी जैन परम्परा का उद्गमसूत्र सिद्धसेन दिवाकर द्वारा रचित मानी गई एक गाथा है जिसमें सिद्धसेन विकमादित्य से कह रहे हैं कि '११९९ वर्ष बीतने पर तुम्हारे जैसा ही एक राजा (कुमारपाल) होगा। यह गाथा अवश्य ही किसी ने कुमारपाल की दानशीलता और असीम दया विषयक कीर्ति फैलने के बाद ही रची होगी। प्रतीत होता है कि इससे पूर्ववर्ती काल में अतीत जैन राजाओं में विक्रम को नहीं सम्मिलित किया गया क्योंकि वह एक अविवेकी नृप था, ऐसे साहसिक कार्य करता था जिसमें उसके शत्रुओं का निर्मम वध चित्रित है। इसलिए वह उदार एवं धार्मिक राजाओं की पंक्ति में न आ सका। परन्तु विक्रम के स्वभाव का एक पक्ष और था और वह था अपने साहसिक कार्यों द्वारा निःस्पृह भाव से जनसेवा करना। यह उद्देश्य सच्चे जैन नरेश के आदर्शों से पूर्ण संगति खाता है । विक्रम साधारण व्यक्ति के लिए भी, चाहे वह उसका घोर शत्रु ही क्यों न हो, अपना सर्वस्व यहाँ तक कि जीवन बलिदान देने के लिए तैयार रहता था। इसके अतिरिक्त वह उदात्तचित्तवाला नरेश था जिसमें असीम करुणा भरी थी।
१. वही, पृ० ३७८. २. भधारक सम्प्रदाय, पृ० १७४. ३. जिनरलकोश, पृ. ४०५. १. वही, पृ. ४१५. ५. वही, पृ. ४२६. ६. पुन्ने वाससहस्से सयम्मि वरिसाण नवनवइ महिए।
होहि कुमरनरिन्दो तुह विकमराय सारिच्छो ॥-प्रबन्धचिन्तामणि, पृष्ठ ८, पद्य .
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