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कथा-साहित्य
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काल १५वीं शती का प्रारम्भ माना जाता है । इसका विक्रमपञ्चदण्डप्रबंध या विक्रमादित्यपञ्चदण्डच्छत्रप्रबंध नाम से भी उल्लेख किया गया है । इसका ग्रन्थाग्र ४०० है ।
तीसरी रचना साधुपूर्णिमागच्छ के अभयचन्द्र के शिष्य रामचन्द्र ने ५५०. श्लोकों में सं० १४९० में लिखी है ।' यह अनुष्टुप् छन्द में बनायी गई है और पाँच सर्गों में विभक्त है । इसे यद्यपि विक्रमचरित्र नाम से भी कहा गया है पर इसमें विक्रम द्वारा प्राप्त केवल पञ्चदण्डच्छत्र ( सिंहासन पर पाँच दण्डों पर लगे) की घटना का वर्णन है । इसमें नगरों, आभूषणों, खाद्य सामग्री आदि के 1 लम्बे वर्णन हैं । यह परवर्ती अनेक प्राचीन गुजराती और राजस्थानी में रचित कृतियों का आदर्श रही है ।
पञ्चदण्डच्छत्रकथा देवमूर्तिकृत विक्रमचरित्र के चतुर्थ सर्ग में तथा शुभशीलकृत विक्रमचरित्र के नवम सर्ग में भी वर्णित है ।
पञ्चदण्डच्छत्रप्रबंध नाम की दो अज्ञातकतृ के रचनाएँ भी लगभग १५वीं शती की मिली हैं। दोनों संस्कृत गद्य में हैं। एक रचना दामिनी नादूगरनी के आदेश के स्थान में पाँच कार्यों में विभक्त है । दूसरी में प्रारम्भ में ही विक्रमादित्य-उत्पत्तिप्रबन्ध नाम से एक छोटा प्रबन्ध दिया गया है जो सम्भवतः कालकाचार्यकथा से लिया गया है।
प्राकृत में एक पञ्चदण्डपुराण का उल्लेख मिलता है।' एक अज्ञातकतृ क पञ्चदण्डकथा की भी सूचना दी गई है । "
विक्रमादित्य के चरित्र से सम्बद्ध वेताल के कथारूप घटना तथा विक्रमादित्य के सिंहासन पर उसके पुत्र के पुतलिकाओं द्वारा प्रश्नात्मकरूप से कही गई कहानियों के
३. वही, संख्या १७८०.
४. जिनरत्नकोश, पृ० २२४.
५. वही.
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पच्चीस
१. वही; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९१२, शीर्षक 'पंचदण्डात्मकं विक्रमचरित्रम् ; प्रो० ए० वेबर ने इसे जर्मन भाषा में प्रस्तावना के साथ रोमन लिपि में बर्लिन से १८७७ में प्रकाशित किया है
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२. हस्तलिखित प्रति - हेमचन्द्राचार्य ज्ञानमन्दिर, पाटन, संख्या १७८२.
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बैठने के
प्रसंग को
प्रश्नों की
पूर्व ३२
लेकर भी
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