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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अन्य विक्रमचरित्रों में पं० सोमसूरिकृत ( ग्रन्थान ६००० ) तथा संस्कृत गद्य में साधुरत्न के शिष्य राजमेरुकृत का और श्रुतसागरकृत विक्रमप्रबन्धकथा का उल्लेख मिलता है।
विक्रमादित्य की पञ्चदण्डच्छत्र की कथा पश्चिम भारत के जैन लेखकों को अति रोचक लगी है और इस प्रसंग को लेकर उन्होंने कई कृतियाँ लिखी हैं। इस प्रसंग पर जैनेतर लेखकों की कोई भी कृति नहीं मिली है। इसी तरह विक्रम सम्बन्धी सिंहासन की बत्तीस कथाओं और वेतालपंचविंशतिकथा पर भी जैनों ने स्वतंत्र ग्रन्थ लिखे हैं। __ पंचदण्डच्छत्रकथा-कथा इस प्रकार है : एक समय राजा विक्रम उज्जैनी के बाजार से जा रहा था कि उसके नौकरों ने दामिनी नादूगरनी की दासी को पीटा, इससे नाराज होकर दामिनी ने अपनी जादू की छड़ी ( अभेद्य दण्ड ) से भूमि पर तीन रेखाएँ खीच दी जो रास्ते को रोककर तीन दीवालों के रूप में परिणत हो गई। राजा की सेना भी उन्हें गिरा न सकती। तब राजा दूसरे मार्ग से महल में गया। राजा ने दामिनी को बुलाया तो उसने बतलाया कि इन दीवालों को राजा तभो हटा सकता है जब वह उसके पाँच आदेशों को पूरा कर पाँच जादू की छड़ियाँ (दण्ड) पा ले । राजा ने स्वीकार कर लिया। इस तरह उसके अलग-अलग पाँच आदेशों से उसे पाँच जादू के दण्ड मिल गये जिनसे वह उन दीवालों को तोड़ सका। यह जान इन्द्र ने एक सिंहासन भेजा जिसमें पंचदण्डों पर एक छत्र लगा था। राजा उस पर एक शुभ दिन में बैठा।
इस कथा पर स्वतंत्र प्रथम रचना पञ्चदण्डात्मकविक्रमचरित्र है जिसकी रचना सं० १२९० या १२९४ बतलायी जाती है पर इसके कर्ता का नाम अज्ञात है।
दूसरी रचना पूर्णचन्द्रसूरि की है जो संस्कृत गद्य में है। इसका रचना
१. जिनरत्नकोश, पृ० ३५०. २. भऑल इण्डिया ओरियण्टल कॉन्फरेंस के सन् १९५९ के विवरण पृ० १३१
प्रभृति में प्रकाशित सोमाभाई पारेख का लेख Some Works on ____ the Folk-tale of पंचदण्डच्छत्र by Jain Authors. ३. जिनरत्नकोश, पृ० २२४; जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ६११ पर
टिप्पण. ४ जिनरत्नकोश, पृ. २२४, ३५०.
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