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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास दिये हैं और यथाशक्ति महाकाव्य-लक्षण से विभूषित किया है। इसमें वसुदेवहिण्डी और समराइच्चकहा के समान केले के स्तम्भ की परत की तरह एक कथा से दूसरी कथा और दूसरो कथा से तीसरी कथा निकलती गई है तथा वटप्ररोह के समान एक शाखा से दूसरी शाखा फूटती गई है। इस तरह की कुल २६ कथाएँ कुवलयमाला में वर्णित हैं और इनका सिलसिला तब तक समाप्त नहीं हुआ है जब तक मुख्य कथा समाप्त नहीं हुई है। ___रूपरेखा-इसमें कथाकार ने बतलाया है कि इस दुःखपूर्ण संसार में भ्रमण का कारण क्रोध, मान, माया, लोभ और मोह है और इनके प्रभावों का दिग्दर्शन पाँच रूपकों द्वारा कथात्मक ढङ्ग से करने के लिए चण्डसोम, मानभट्ट, मायादित्य, लोभदेव और मोहदत्त के पाँच भवों की रोचक कथा गढ़ी गई है। इन पाँच भवों में तीन मनुष्यभव हैं और अन्तराल के दो देवभव हैं। प्रथम मानवभव के चण्डसोमादि दीक्षा ले समाधिमरण कर देवगति में जाते हैं और परस्पर वचनबद्ध होते है कि जहाँ भी उनका आगे पुनर्जन्म हो, एक दूसरे को प्रतिबुद्ध करें। वे सब अन्तराल देवगति से आकर द्वितीय मानवभव में क्रमशः सिंह (पशु), कुवलयचन्द्र, कुवलयमाला, सागरदत्त
और पृथ्वीसार नाम से हुए। इस जन्म में उन्होंने एक-दूसरे को प्रतिबुद्ध करने का काम किया जिससे अन्तराल देवभव में जाकर वहाँ से भग महावीर के समय में तृतीय मानवभव में क्रमशः मणिरथकुमार, स्वयम्भूदेव. महारथकुमार, वज्रगुप्त और कामगजेन्द्र के रूप में जन्म लिया। पीछे भगवान् महावीर से दीक्षा ले अन्तकृत केवली होकर मुक्त हो सके ।
लेखक द्वारा कथा का नाम द्वितीय मानवभव के एक पात्र कुवलयमाला के नाम से रखकर कथा के प्रति पाठकों का कुतूहल-उत्पादन करना ही लक्ष्य है ।
कथावस्तु-अयोध्या नगरी के दृढवर्मा राना और प्रियंगुश्यामा रानी को देवी के प्रसाद से एक पुत्र हुआ जिसका नाम कुवलयचन्द्र रखा गया। बड़े होने पर उसने सभी क्रियाओं और कलाओं में प्रवीणता प्राप्त कर ली। इस कुमार के साथ राजा एक दिन अश्वक्रीड़ा के लिए जा रहा था कि कुमार का अश्वसहित हरण हो गया। आकाशमार्ग से जाते हुए बचने का कोई उपाय न देख कुमार ने अश्व के पेट में छुरा भोंक दिया और तब वह अश्वसहित भूमि पर नीचे आ गया। उसी समय कोई ध्वनि उसे यह कहती सुन पड़ी कि 'कुमार कुवलयचन्द्र, दक्षिण दिशा में एक कोस दूर जाओ, वहाँ तुम्हें कोई अपूर्व वस्तु दिखाई देगी।' कुमार ने वहाँ एक अटवो
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