________________
कथा-साहित्य
जैन संस्कृत में की है ।' बुद्धिविजय हीरविजयसूरि- सन्तानीय विजयदानसूरि के प्रशिष्य एवं पं० जगन्मल्ल के शिष्य थे । इसकी रचना तत्र की गई थी जत्र विजयसेनसूरि पट्टधर थे ।
अन्य रचनाओं में हेमचन्द्र, पद्मसेन, शीलविजय, रत्नशेखर और पूर्णमल्ल कृत संस्कृत में निबद्ध कृतियाँ मिलती हैं । '
गुजराती में नयविजय और भक्तिविजय की रचनाओं का उल्लेख मिलता है । मानतुङ्ग मानवतीचरित - इस लोककथा को मृषावाद - परिहार के साथ जोड़ा गया है । यह मूल में पंडित मोहनविजय द्वारा सं० १७६० में विरचित मानतुङ्ग मानवतीराग के आधार पर विरचित संस्कृत रचना है । यह कथानक छोटे-छोटे आठ सर्गों में विभक्त है । कथावस्तु इतनी मनोहर है कि इसका आधुनिक चित्रपट पर भी अच्छी तरह अभिनय किया जा सकता है ।
कथावस्तु — अवन्ती के एक सेठ की पुत्री मानवती अपनी सखियों के आगे विनोदवश अपने अभिमानी स्वभाव का वर्णन करती है और कहती है कि वह अपने पति को हर तरह से अपने अधीन रखेगी । यह बात अवन्ती का राजा मानतुङ्ग सुन लेता है । उसके गर्व को खर्व करने के लिए वह उससे विवाह करता है और प्रथम मिलन के समय से ही उसे दण्ड देने के हेतु एक अलग प्रासाद में बन्द करके रखता है और अपनी गर्वोक्ति सिद्ध करने को कहता है । वह गुपचुप अपने पिता से कह एक सुरङ्ग बनवाकर योगिनी का वेश बनाकर बाहर निकल जाती है। उसने उस वेश में राजा पर एक जादू-सा किया । उसने एक प्रसंग में राजा से अपने चरण धुलवाये और उसे चरणोदक पिलाया । उस योगिनी ने अप्सरा का रूप धारणकर राजा से अपने अभिमान की अन्य शर्तें पूरी कराई । एक समय राजा के एक अन्य विवाह के प्रसंग में उसने उसे छलकर गर्भधारण किया और चिह्नस्वरूप अंगूठी, मोती का हार आदि ले लिये और अपने एकान्त महल में आकर रहने लगी। जब राजा को
१. जिनरत्नकोश, पृ० १२३; जैन विद्याभवन, कृष्णनगर, लाहौर, १९४२, अंग्रेजी अनुवादसहित, सम्पादक - मूलराज
जैन.
२. वही, पृ० १२३ और २३५.
३. वही, पृ० १२३.
४. गुर्जर जैन कविओ, भाग २, पृ० ४३६; ग्रन्थ मेसर्स ए० ए० एण्ड कम्पनी' पालीताना से प्रकाशित है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org