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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कर लिया और उसे ले जाकर रत्नद्वीप में बाँसों के जाल में छिपाकर रखा । वहाँ वह आत्मघात की इच्छा से विषफल खा लेती है । दैवयोग से इसी बीच उसके सच्चे प्रेमी मकरकेतु ने वहाँ पहुँचकर उसकी रक्षा की, तथा वहाँ से जाकर उसने शत्रुंजय नृप का विनाश किया। पर यहाँ सुरसुन्दरी को किसी पूर्व वैरी वेताल ने हरणकर आकाशमार्ग से हस्तिनापुर के उद्यान में गिरा दिया । वहाँ के राजा ने उसे सुरक्षा दे दासी से संत्र वृत्तान्त जान लिया के वध के अनन्तर मकरकेतु का भी अपहरण कर लिया गया ।
उधर शत्रुंजय
बड़ी कठिनाइयों और नाना घटनाओं के पश्चात् सुरसुन्दरी और मकरकेतु का पुनर्मिलन और विवाह हुआ । पश्चात् संसारसुग्व भोग दोनों ने दीक्षा ले तपस्याकर मोक्षपद पाया ।
इस कथा की नायिका सुरसुन्दरी का नाम व वृत्तान्त वास्तव में ११ वें परिच्छेद से प्रारम्भ होता है । इससे पूर्व मकरकेतु के माता पिता अमरकेतु और कमलावती का तथा उस नगर के सेठ धनदत्त का घटनापूर्ण वृत्तान्त और कुशाग्रपुर के सेठ की पुत्री श्रीदत्ता से विवाह, उसी घटनाचक्र के बीच विद्याधर चित्रवेग और कनकमाला तथा चित्रगति और प्रियंसुन्दरी के प्रेमाख्यान वर्णित हैं ।
इस कथा में प्रारम्भ में सज्जन - दुर्जन वर्णन तथा प्रसंग-प्रसंग पर मंत्र, दूत, रणप्रयाण, पर्वत, नगर, आश्रम, संध्या, रात्रि, सूर्योदय, विवाह, वनविहार आदि के वर्णन दिये गये हैं। अनेक अलंकारों का प्रयोग भी हुआ है । समस्त ग्रन्थ में आर्याछन्द का व्यवहार हुआ है पर कहीं-कहीं वर्णन विशेष में भिन्न-भिन्न छन्दों कभी व्यवहार हुआ है ।
रचयिता और रचनाकाल —- इसके प्रणेता धनेश्वरसूरि हैं जो जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । ग्रन्थान्त में १३ गाथाओं की एक प्रशस्ति में ग्रन्थकार का परिचय, रचना का स्थान तथा काल का निर्देश किया गया है । तदनुसार यह कथाकाव्य चड्डावल्लिपुरी (चन्द्रावती ) में सं० २०९५ की भाद्रपद कृष्ण द्वितीया गुरुवार धनिष्ठा नक्षत्र में बनाया गया । संभवतः इनके ही गुरु जिनेश्वरसूरि खरतरगच्छ
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तेसिं सीसवरो धणेसर मुनी एयं कह पायउं । चड्डावलि पुरी ठिभो स गुरुणो आणाए पाढंतरा ॥ कासी विक्कम वच्छरम्मि य गए बाणंक सुन्नोडुपे । मासे भद्दव गुरुम्मि कसिणे बीया धणिट्ठा दिने ॥
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