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कथा-साहित्य
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गुणभद्राचार्य ने की है । गुणभद्र नाम के ५ आचार्यों का पता लगता है । उनमें से एक उत्तरपुराण के रचयिता गुणभद्र हैं पर उनकी रचना से इसका कोई मेल नहीं है । द्वितीय गुणभद्र चन्देल नरेश परमर्दि के शासन ( सन् १९७० - १२००) काल में हुए हैं। ये अच्छे कवि भी थे। इनके द्वारा रचित संस्कृत धन्यकुमारचरित्र काव्य मिलता है । ये ही विजौलिया पार्श्वनाथ स्तंभलेख के लेखक तथा प्रतिष्ठापाठ' के लेखक माने जाते हैं। बहुत सम्भव है इन्हीं गुणभद्र ने जिनदत्तचरित्र की रचना की हो ।
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चतुर्थ रचना संस्कृत गद्य ( ग्रन्थाग्र १६३७ ) में है । इसे सं० १४७४ में पूर्णिमागच्छ के गुणसागरसूरि के शिष्य गुणसमुद्रसूरि ने बनाया था ।
अन्य एक-दो जिनदत्तकथाओं का उल्लेख मिलता है । अपभ्रंश में रहधू कवि ने जिनदत्तचरिउ लिखा है ।
नरवर्मकथा – सम्यक्त्व के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए नरवर्म नरेश को लेकर दो-तीन रचनाएँ मिलती हैं ।
कथावस्तु—राजगृह के नरेश नरवर्म थे और उनका पुत्र हरिदत्त । एक समय विदेश यात्रा से लौटकर नरेश के मित्र मदनदत्त ने राजा को एक हार दिया और कहा कि उसे एक देवता ने दिया है जोकि पूर्वभव में उसका बड़ा भाई था और एक मुनि की सूचना के अनुसार वह देवता अब आपके पुत्र हरिदत्त के रूप में अवतरित हुआ है । हरिदत्त ने भी उक्त हार को देखते ही जातिस्मरण द्वारा पूर्वभव के समस्त वृत्तान्त सुनाये । उसी समय एक केवली मुनि से उपदेश सुनकर नरवर्म ने सम्यक्त्व व्रत ग्रहण किया। एक समय इन्द्र से उसकी प्रशंसा सुन एक देवता ने परीक्षा ली जिसमें उसने बुभुक्षापीड़ित जैन - साधुओं को लड़ते-झगड़ते दिखाया, इससे राजा अपने राज्य में यह देख आत्मनिन्दा और गर्हणा करने लगा । देवता ने इस तरह उसे सच्चा सम्यक्त्वी पाया । नरवर्म बहुत काल तक गृहस्थधर्म पाल पीछे दीक्षा ले सुगति को गया ।
इस कथानक, पर सर्वप्रथम कृति नरवर्ममहाराजचरित्र विवेकसमुद्रगणि द्वारा विरचित मिलती है जिसमें पांच सर्ग हैं । ग्रन्थ के अन्त में कवि ने इसका परिमाण ५४२४ श्लोक-प्रमाण दिया है । इसका दूसरा नाम सम्यक्त्वालंकार
१. प्रतिष्ठापाठ पश्चात्कालीन १६वीं सदी के गुणभद्र की रचना है ।
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