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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्यासे भटकते हुए उसे भिक्षा में कुछ कुल्माष मिले जिन्हें उसने मुनि को आहार में दिये। इससे प्रसन्न हो एक देवी ने वर मांगने को कहा । फलस्वरूप उसने राज्य और देवदत्ता वेश्या को वर में मांगा। सत्पात्र दान से उसे ऐश्वर्य एवं अनेक कौतुकपूर्ण कार्य करने को मिले ।
प्रस्तुत कृति ३२२ संस्कृत श्लोकों में समाप्त हुई है। रचयिता का नाम अज्ञात है।
नाभाकनृपकथा-देवद्रव्य के सदुपयोग पर नाभाक नृप की कथा कही गई है। इसमें बताया गया है कि नाभाक किस तरह देवद्रव्य के सदुपयोग से सद्गति पाता है और उसी का दुरुपयोग करने से उसका भाई सिंह और एक नाग सेठ भवान्तरों में कैसे दुःख पाते हैं। कथाप्रसंग में शत्रुजयतीर्थ का माहात्म्य भी वर्णित है । यह ग्रन्थ संस्कृत श्लोकों में है तथा बीच-बीच में प्राकृत की गाथाएँ भी आ गई हैं जिनका 'उक्तं च' द्वारा निर्देश किया गया है। कथा बड़ी रोचक है। ___ रचयिता एवं रचनाकाल-इसकी रचना अंचलगन्छीय मेरुतुंगसूरि ने वि० सं० १४६४ में की है। ये महेन्द्रसूरि के शिष्य थे। इनकी अन्य रचनाएँ हैंजैनमेघदूतसटीक, कातंत्रव्याकरणवृत्ति, षड्दर्शननिर्णय आदि ।
नामाकनृपकया पर कमलराज के शिष्य रत्नलाभकृत रचना तथा एक अज्ञातकर्तृक नाभाकनृपकथा भी मिलती है।
मृगांकचरित-इसे मृगांककुमारकथा भी कहते हैं। यह एक लोककथा है जिसे पात्रदान में सद्-असद्भाव के फल को द्योतन करने से सम्बद्ध किया गया है।
कथावस्तु-मृगांक और पद्मावती साथ-साथ पढ़ते हैं। पद्मावती के पिता ने मृगांक को अपनी पुत्री के लिए देने को ८० कौड़ियाँ दी पर मृगांक ने उनसे कुम्हड़ापाक लेकर खा लिया। पद्मावती को जब यह मालूम हुआ तो वह बहुत क्रुद्ध हुई और मौका आने पर सीख देने की धमकी दी ।
१. विनयभक्ति सुन्दरचरण ग्रन्थमाला (सं०४), जामनगर, सं० १९९५, २. जिनरत्नकोश, पृ० २१०; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९०८. ३. वही, पृ० २१..
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