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पौराणिक महाकाव्य
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यहाँ सम्भव नहीं कि उपरि निर्दिष्ट सभी रचनाओं और लेखकों का परिचय दिया जाय । इनमें से कई एक का परिचय एन. डब्ल्यू. ब्राउन के स्टोरी आफ कालक में तथा पं० अम्बालाल प्रेमचन्द्र शाह ने कालकाचार्यकथा की गुजराती प्रस्तावना में दिया है । इनमें से कई अच्छे आलंकारिक लघुकाव्य हैं ।
कथानक का सार-भारतवर्ष के धरावास नगर के राजा वैरिसिंह के पुत्र कालककुमार अनेक कलाओं के पारगामी थे। एक समय गुणाकरसूरि से धर्मबोध पाकर उन्होंने जैनी-दीक्षा ग्रहण कर ली। पीछे अपने ही गुरु के पट्टधर होकर पाँच सौ शिष्यों के साथ विहार करने लगे। कालक की बहिन सरस्वती भी साध्वी हो गई। पर उसके सौन्दर्य पर रीझकर उज्जैन का राजा गर्दभिल्ल उसे अपने अन्तःपुर में ले गया। उसे बहुत समझाया गया पर सब व्यर्थ गया। तब कालकाचार्य अपवाद मार्ग ग्रहणकर साधुवेश छोड़ राजा का उच्छेद करने के लिए सिन्धुदेश के उस पार से शक राजा को ले आये। इससे गर्दभिल्ल मारा गया। शक राजा उज्जैन का राजा बना। कालान्तर में उसके वंश का उच्छेद कर विक्रमादित्य राजा बना।
इधर कालकाचार्य ने प्रायश्चित्तकर पुनः मुनिवेश धारणकर देश-देशान्तरों में भ्रमण किया । दक्षिण देश के सातवाहन राजा के अनुरोध पर उन्होंने पयूषणा की पंचमी तिथि को बदलकर चतुर्थी कर दिया। एक समय उन्होंने इन्द्र की निगोद विषयक शंकायें दूर की। वे अपने दुविनीत शिष्य सागरसूरि को उपदेश देने सुवर्णभूमि भी गये। पीछे उनका समाधिपूर्वक स्वर्गवास हुआ।
परवर्ती रचनाओं में वर्णित अनेक घटनाओं को सत्य मान कुछ विद्वानों ने दो कालकाचार्यों की कल्पना की है।'
वनस्वामिचरित-वज्रस्वामी के चरित्र पर वज्रस्वामिकथा तथा वज्रस्वामिचरित्र (प्राकृत ) का उल्लेख मिलता है। दो अपभ्रंश रचनाओं का भी इस सम्बन्ध में उल्लेख किया गया है। उनमें से एक की रचना जिनहर्षसूरि ने सं० १३१९ में की थी।
1. द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ में मुनि कल्याणविजय जी का लेख । प्रथम कालका
चार्य, महावीर निर्वाण सं० ३००-३०६ में तथा दूसरे महा० नि०सं०४२५
के लगभग और ४६५ के पहले। २. जिनरत्नकोश, पृ० ३४०.
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