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पौराणिक महाकाव्य
२१९ इस पर तपागच्छ के कृपाविजयगणि के शिष्य मेघविजयगणि ने विवरण लिखा है जिसमें कठिन शब्दों का अर्थ स्पष्ट किया गया है । मेघविजयगणि का परिचय पहले दे चुके हैं। __ भानुचन्द्रगणिचरित-वाचक सकलचन्द्र के दो शिष्य सूरचन्द्र और शान्तिचन्द्र थे। सूरचन्द्र के भानुचन्द्र नामक प्रभावक शिष्य थे । भानुचन्द्र के चरित्र पर इस काव्य का निर्माण चार प्रकाशों में किया गया है। इन प्रकाशों में क्रमशः १२८, १८७, ७६ और ३५८ संस्कृत पद्य हैं।' यह चरितकाव्य अनुष्टुप छन्दों में रचा गया है पर यत्र-तत्र अन्य छन्दों का भी प्रयोग हुआ है। यह काव्य मुगल सम्राट अकबर के अन्तिम वर्षों और जहाँगीर के समय (सन् १६०५-१६२७) में भानुचन्द्र द्वारा किये गये प्रभावना कार्यों तथा अन्य बातों पर प्रकाश डालता है जिनपर ऐतिहासिक काव्यों के प्रसंग में चर्चा करेंगे।
काव्यकर्ता और रचना-समय-इसकी रचना भानुचन्द्र के ही शिष्य तथा उनके अनेक साहित्यिक अनुष्ठानों के सहयोगी सिद्धिचन्द्रगणि ने की थी। इसका रचना-संवत् ज्ञात नहीं होता फिर भी यह समकालिक रचना मालूम होती है। अपने गुरु की भाँति सिद्धिचन्द्र अपने युग के महान् साहित्यकार थे। उनकी अनेक रचनायें मिलती हैं : कादम्बरी उत्तरार्धटीका, शोभनस्तुतिटीका, काव्यप्रकाशखण्डन, वासवदत्ताटीका आदि १९ कृतियाँ। सम्राट जहाँगीर ने सिद्धिचन्द्र को खुश-फहम ( तीक्ष्णबुद्धि ) की उपाधि दी थी।
देवानन्दमहाकाव्य-यह माघकृत शिशुपालवध पर आश्रित सात सर्गों का. पादपूर्ति काव्य है जिसका वर्णन पादपूर्ति काव्यों में करेंगे। इसमें हीरविजय के. प्रशिष्य विजयदेवसूरि का जीवन-चरित्र दिया गया है। इसकी रचना कृपाविजयगणि के शिष्य मेघविजयगणि ने सं० १७५५ में की है। मेघविजय का परिचय अन्यत्र दिया गया है।
दिग्विजयकाव्य-इसमें १३ सर्ग हैं जिनमें विविध छन्दों में १२९४ पद्य हैं। इसमें तपागच्छ के विजयप्रभसूरि का चरित-वर्णन है। इसके प्रारंभिक
१. जिनरत्नकोश, पृ० २९४; सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १७, सं० १९९७. . २. जिनरत्नकोश, पृ० १७९, यशोविजय जेन ग्रंथमाला, भावनगर, सं०
१९६९; सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक ७, १९३७. ३. जिनरत्नकोश, पृ० १७१; सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १४, १९४५.
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