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कथा-साहित्य
इस चरित्र का सार निम्न रीति से है : मणिपतिका नगरी का मणिपति नामक राजा था । उसने एक दिन अपने सिर का पका केश देख अपने पुत्र मुनिचन्द्र को राज्य दे दमघोषमुनि से दीक्षा ले ली और अकेला विहार करने लगा। एक बार वह उज्जयिनी के बाहर श्मशान में कायोत्सर्ग कर रहा था। वहाँ भयानक ठंड के कारण गोपाल बालकों ने भक्ति से मुनि को वस्त्र ओढ़ा दिया पर चिता की लपट के कारण वस्त्र में आग लग जाने से मणिपतिमुनि झुलस गये । इसकी खबर उस नगर के सेठ कुंचिक को लगी और उसने मुनि को घर में लाकर चिकित्सा कराई तथा वर्षाकाल समीप आने पर उन्हें चातुर्मास बिताने का आग्रह किया, तथा अपने पुत्र के भय से संस्तारक के नीचे अपने धन को गाड़ दिया । पर पुत्र ने उस धन का अपहरण कर लिया । सेठ ने मुनि पर धनचोरी का आरोप किया और हाथी की कथा कही । तब मुनि ने अपनी निर्दोषता को बतलाने के लिए एक हारकथा ( यह एक लम्बा कथानक है ) कही । इसी तरह उन दोनों के बीच चर्चा में ८-८ - १६ कथाएँ कहीं गई । पर सेठ के मन का पाप दूर नहीं हुआ तो मुनि ने क्रोध में आकर श्राप दिया कि 'जिसने तेरा धन लिया हो उसका नाश हो नाय' । तप प्रभाव से मुनि के शरीर से तेजोलेश्या निकलने लगी । तब कुंचिक सेठ के पुत्र ने भयभीत होकर धन की चोरी स्वीकार कर मुनि से क्षमा मांगी। मुनि ने क्षमा दी । कुंचिक सेठ भी विरक्त हो मुनि बन गया और दोनों ने निर्दोष तपस्याकर स्वर्ग प्राप्ति की । इस कथा पर संस्कृत में तीन और प्राकृत में एक रचना मिलती है ।
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प्रथम गद्य-पद्यमय संस्कृत रचना' है जिसे चन्द्रगच्छ के जम्बूकवि ने सं० १००५ में रचा था। इनकी अन्य रचना जिनशतककाव्य पर सं० १०२५ में साम्बमुनि ने टीका लिखी थी । उसी की प्रशस्ति से इस कवि के गच्छ का पता लगा है । कर्त्ता के जीवन के विषय में और कोई सूचना कहीं से नहीं मिलती है । बृहट्टिप्पनिका में मणिपतिचरित को मुनिपतिचरित कहकर '१००५ वर्षे जम्बूनागकृतं ३२०० उद्धृ० २७००' लिखा है । इससे लगता है कि जम्बूनाग और जम्बूकवि एक ही थे । हो सकता है कि जम्बू का ही दूसरा नाम जम्बूनाग रहा हो । यह चरित्रग्रन्थ एतद्विषयक अन्य रचनाओं से प्राचीन. सुन्दर एवं आकर्षक है । इसकी भाषा सरल, स्पष्टार्थयुक्त एवं अलंकारविभूषित है । शुरू में सज्जनस्तुति, दुर्जननिन्दा, ग्रीष्मादि ऋतु सायंकाल तथा नगरी आदि का आकर्षक वर्णन है । कवि अलंकारप्रिय है पर उसकी भाषा प्रसादगुणवाली है । इस
१. हेमचन्द्र ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, सं० १९७८.
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