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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास नारियों के चरित्र वर्णित हैं जिन्होंने देवपूजा आदि गृहस्थों के ६ धार्मिक कृत्यों में विशेष ख्याति प्राप्त की थी।
प्रथम अष्टक की कथाएँ देवपूजा-जन्य पुण्य के माहात्म्य का सूचन करती हैं। दूसरे अष्टक में णमोकार मन्त्र का माहात्म्य, तीसरे अष्टक में स्वाध्याय का फल, चौथे अष्टक में शील के प्रभाव का ज्ञापन, पाँचवे में पर्वो पर उपवास का महत्त्व तथा छठे में पात्र दान से होनेवाले पुण्य की कथाएँ दी गई हैं।
प्रत्येक कथा के आरम्भ में एक श्लोक से पंचतंत्र-हितोपदेश के समान कथा के विषय का संकेत कर दिया गया है। ये श्लोक ग्रंथकार ने स्वयं बनाये या पीछे से जोड़े, इसका निर्णय करना कठिन है। कथाएँ गद्य में हैं जो कि ऊपर से तो सरल दिखाई देती हैं किन्तु प्रायः जटिल हैं । कथाओं के भीतर उपकथाएँ भी आ गई हैं। जन्मान्तरों की कथाओं के वर्णन के कारण कथावस्तु में जटिलता आ गई है। यत्र-तत्र संस्कृत-प्राकृत के कुछ पद्य अन्यत्र से उद्धृत पाये जाते हैं।
ग्रंथकार ने कथाओं को कई स्रोतों से लिया है और कहीं कहीं कुछ का निर्देश भो कर दिया है। उनमें से कुछेक कथाओं का आधार कन्नड वडाराधना है तथा अधिकांश कथाएँ रविषेणकृत पद्मपुराण, जिनसेनकृत हरिवंशपुराण, जिनसेन-गुणभद्रकृत महापुराण और सम्भवतः हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश से ली गई हैं।
यद्यपि यह ग्रंथ संस्कृत में लिखा गया है पर लोक-प्रचलित शैली में लिखा होने से संस्कृत-व्याकरण के कठोर नियमों का पालन नहीं किया गया है। इसकी संस्कृत तत्कालीन बोलियों से प्रभावित है। इसमें यत्र-तत्र कन्नड़ शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। __ग्रन्थकार और रचनाकाल-कर्ता ने प्रशस्ति के तीन पद्यों में अपना कुछ परिचय दिया है। तदनुसार इनका नाम रामचन्द्र मुमुक्षु था। ये दिव्यमुनि केशवनन्दि के शिष्य थे जो कुन्दकुन्दान्वयी थे तथा बड़े संयमी, अनेक मुनियों
और नरेशों से वन्दनीय एवं बहुख्यातिप्राप्त थे। रामचन्द्र ने महायशस्वी वादीभसिंह महामुनि पद्मनन्दि से व्याकरणशास्त्र का अध्ययन किया था।
इस कथाकोश की रचना किस समय हुई, इसका कहीं उल्लेख नहीं है । न कर्ता के काल का पता है। तो भी इनका १२वीं शताब्दी के पूर्वाध में होना सम्भव माना जा सकता है।' १. देखें-पुण्याश्रवकथाकोश पर लिखी भूमिका, पृष्ठ ३०-३२.
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