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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
शाखा के हेमतिलक के शिष्य थे । वे सुलतान फिरोजशाह तुगलक के समकालीन थे । रत्नशेखरसूरि का जन्म वि० सं० १३७२ में हुआ था और १३८४ में दीक्षा तथा १४०० में आचार्य पद । इनका विरुद 'मिथ्यान्धकारनभोमणि' था । वि० सं० १४०७ में इन्होंने फिरोजशाह तुगलक को धर्मोपदेश दिया था । इसकी अन्य रचनाएँ : गुणस्थानक्रमारोह, लघुक्षेत्रसमास, संबोहसत्तरी, गुरुगुणषट्त्रिंशिका, छन्दःकोश आदि मिलती हैं ।
सिरिवालकहा पर खरतरगच्छीय अमृतधर्म के शिष्य क्षमाकल्याण ने स० १८६९ में टीका लिखी है।
श्रीपालकथा - यह संस्कृत गद्य में लिखी गई अति संक्षिप्त कथा है । इसके रचयिता उक्त रत्नशेखरसूरि के शिष्य हेमचन्द्रसूरि ही हैं । इसमें अपने गुरु की रचना की गाथाओं और भावों का संग्रह मात्र है ।
श्रीपालचरित - इसमें ५०० संस्कृत पद्यों में कथा वर्णित है । इसके रचयिता पूर्णिमागच्छ के गुणसमुद्रसूरि के शिष्य सत्यराजगणि हैं जिन्होंने सं० १५१४ या ५४ ने इसकी रचना की ।
श्रीपालकथा या चरित - इसमें ५०७ संस्कृत श्लोक हैं। इसके रचयिता वृद्ध तपागच्छ के उदयसागरगणि के शिष्य लब्धिसागरगणि हैं । इसकी रचना सं० १५५७ में हुई थी ।
अन्य श्रीपालचरितों में वृद्ध तपागच्छ के ही एक अन्य विद्वान् विजयरत्नसूरि के शिष्य धर्मधीर ने संस्कृत में श्रीपालचरित की रचना की, जिसकी प्राचीन हस्तलिखित प्रतियाँ सं० १५७३, १५७५ और १५९३ की मिलती हैं। # एक श्रीपालचरित्र को संस्कृत गद्य में तपागच्छीय नयविमल के शिष्य लिखा है । यह चरित्र विजयप्रभसूरि के पट्टधर समाप्त हुआ था । "
ज्ञानविमलसूरि ने सं० १७४५ विजयरत्नसूरि के शासनकाल में
१. जिनरत्नकोश, पृ० ३६९.
२. नेमिविज्ञान ग्रन्थमाला (२२), केशवलाल प्रेमचन्द्र कंसारा, खंभात,
वि० सं० २००८.
३. जिनरत्नकोश, पृ० ३९७; विजयदानसूरीश्वर ग्रन्थमाला ( सं० ४ ), सूरत,
वि० सं० १९९५.
४. जिनरत्नकोश, पृ० ३९७.
५.
वही देवचन्द लालभाई पुस्तक० (सं० ५६ ), बम्बई, १९१७.
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