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कथा-साहित्य
२८९ १०. ११ और १४ सर्गों में किसी एक वृत्त का प्रयोगकर सर्गान्त में छन्द बदल दिया गया है। शेष सर्गों में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है। समस्त काव्य में २५ वृत्तों का प्रयोग हुआ है। कुछ अप्रसिद्ध तथा अज्ञात छन्दों का प्रयोग भी इसमें हुआ है।
कविपरिचय और रचनाकाल-इस काव्य के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं दी गई है अतः कवि का विशेष परिचय इस काव्य से नहीं मिलता है। परन्तु नलायनमहाकाब्य के तृतीय स्कन्ध के अन्त में कवि ने ये पंक्तियाँ लिखी हैं : स्तत् किमप्यनवमं नवमंगलांकं श्रीमद्यशोधरचरित्रकृता कृतं यत् । तस्यार्यकर्णनलिनस्य नलायनस्य स्कन्धो जगाम रसवीचिमयस्तृतीयः॥
इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि नलायनकाव्य और प्रस्तुत काव्य के रचयिता एक ही माणिक्यसूरि हैं। उन्होंने नलायन से पूर्व यशोधरचरित की रचना की थी। माणिक्यसूरि सं० १३२७ से १३७५ के बीच जीवित थे। वे बडगच्छ के थे और उनके गुरु का नाम पडोचन्द्र ( पद्मचन्द्र) सूरि था।
१. यशोधरचरित-इसमें आठ सर्ग हैं। इसकी अन्तिम पुष्पिका में 'इति यशोधरचरिते मुनिवासवसेनकृते काव्ये भष्टमः सर्गः समाप्तः' वाक्य है। प्रारंभ में लिखा है : प्रभंजनादिभिः पूर्व हरिषेण समन्वितैः । यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेन भाषितुम् । इससे ज्ञात होता है कि उनसे पूर्व प्रभंजन और हरिपेण' ने यशोधरचरित लिखे थे। वासवसेन ने अपने समय और कुलादि का कोई परिचय नहीं दिया है।
सं० १३६५ में हुए अपभ्रंश कवि गन्धर्व ने अपने 'जसहरचरिउ' में वासवसेन की रचना का उल्लेख किया है : 'जं वासबसेणिं पुत्व रहउ, तं पेक्खवि गंधब्वेण कहिउ' अर्थात् वासवसेन ने पूर्व में जो ग्रन्थ रचा था, उसे देखकर ही यह गंधर्व ने कहा । इससे इतना निश्चित है कि वे गन्धर्व कवि से अर्थात् सं० १३६५ से पहले हुए हैं।
५. यशोधरचरित (अपर नाम दयासुन्दरकाव्य)-इस काव्य में ९ सर्ग हैं और कुल मिलाकर १४६१ पद्य हैं। यह अप्रकाशित रचना जैन सिद्धान्त भवन, आरा में सुरक्षित है। इसके प्रत्येक सर्ग की पद्य संख्या क्रमशः १४९, ७९,
१. हस्तलिखित प्रति, बम्बई के सरस्वती भवन सं० ६०४ क; जयपुर के बाबा ___ दुलीचन्द्र के भण्डार में; जैन साहित्य और इतिहास, पृ० २५५. २. हरिषेण शायद वे ही हों जिनकी धर्मपरीक्षा (अपभ्रंश) मिली है।
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