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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आदि मिलती हैं। इनका शतार्थीकाव्य की रचना के कारण शतार्थिक उपनाम भी हो गया था।
कुमारपालप्रतिबोध की रचना सं० १२४१ में हुई थी जो कुमारपाल की मृत्यु के ११ वर्ष बाद आता है। यह इतिहास की दृष्टि से अधिक महत्त्व की रचना है।
धर्माभ्युदय-इसे संघपतिचरित्र भी कहा गया है। इसमें १५ सर्ग हैं और समग्र ग्रन्थ का परिमाण ५२०० श्लोक-प्रमाण है। इस कथाकाव्य में महामात्य वस्तुपाल द्वारा की गई संघयात्रा को प्रसंग बनाकर धर्म के अभ्युदय का सूचन करनेवाली अनेक धार्मिक कथाओं का संग्रह है। इसके प्रथम सर्ग में वस्तुपाल की वंशपरम्परा तथा वस्तुपाल के मंत्री बनने का निर्देश है तथा पन्द्रहवें सर्ग में वस्तुपाल की संघयात्रा का ऐतिहासिक विवरण है। इससे इस काव्य को संघपतिचरित नाम भी दिया गया है।
अन्य सर्गों में अर्थात् २ से १४ तक परोपकार, शीलवत और प्राणियों के प्रति अनुकम्पा जन्य पुण्य से सम्बंधित अनेकों धर्मकथाएँ तथा शत्रुजय तीर्थ के उद्धार तथा माहात्म्य सम्बंधी अनेको कथाएँ दी गई हैं। द्वितीय सर्ग से सप्तम सर्ग तक परोपकार का माहात्म्य, नवम सर्ग में तप का माहात्म्य और दशम से चतुर्दश तक दीनानुकम्पन का माहात्म्य बतलाया गया है । इन सर्गों में गुरु विजयसेनसूरि ने अपने शिष्य वस्तुपाल को ऋषभदेव, भरत, बाहुबलि, जम्बूस्वामी, युगबाहु और नेमिनाथ की कथाएँ सुनाई और इन कथाओं के भीतर भी बीसियों अवान्तर कथाएँ दी गई हैं, यथा-अभयंकरनृपकथा, अंगारकदृष्टान्त, मधुविन्दाख्यानक, कुबेरदत्त-कुबेरदत्ताख्यानक और शंखधम्मिक आदि ।
ये सब कथाएँ अनुष्टुभ् छन्द में ही वर्णित हैं पर कथात्मक इन सों (२-१४ ) में प्रत्येक सर्गान्त में छन्दपरिवर्तन के साथ कुछ पद्य जोड़े गये हैं जिनमें वस्तुपाल की प्रशंसा है और प्रस्तुत रचना को महाकाव्य कहा गया
१. जिनरत्नकोश, पृ० १९५; सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्यांक ५, मुनि चतुर
विजयजी और पुण्यविजय जी द्वारा सम्पादित, बम्बई, १९४९. नेमिनाथचरित्र के प्रसंग में जो उदयप्रभ की स्वतंत्र रचना का उल्लेख किया है वह स्वतंत्र नहीं प्रत्युत यहीं से उद्धृत एवं अलग प्रकाशित रचना है।
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