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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गया है। इसके अतिरिक्त अनेक लौकिक कथाओं को धर्मकथा के रूप में परिणत करने के लिए उनमें यत्र-तत्र परिवर्तन कर कल्पित धर्मकथा-साहित्य की सृष्टि की गई है।
धर्मकथा-साहित्य की स्वतंत्र रचनाओं को हम विभिन्न शैलियों में देख सकते हैं। इन शैलियों का व्यक्तिगत रचनाओं के परिचय के साथ हमने संकेत कर दिया है। उनकी अन्य विशेषताओं को दिखाने से ग्रन्थ का कलेवर बढ़ने का भय है इसलिए जहाँ जैसी आवश्यकता हुई है उसकी ओर संकेत मात्र कर दिया है।
स्वतंत्र रचनाओं के वर्णन-क्रम में हमने एक सुविधाजनक वर्गीकरण का अवलम्बन लिया है जिसे वैज्ञानिक या आलोचनात्मक वर्गीकरण नहीं कहा जा सकता। कहीं हमने घटनाओं या कथासूत्र का एक-सा अनुकरण करनेवाली रचनाओं का परिचय दिया है तो कहीं एक से कल्पनाबन्ध ( Motif) वाली कृतियों का, कहीं पुरुषपात्र प्रधान कहानियों का तो कहीं स्त्रीपात्र-प्रधान कथाओं का एकत्र विवरण प्रस्तुत किया है। साथ ही तीर्थों, पर्यों एवं स्तोत्रों के माहात्म्य को प्रकट करनेवाली कथाओं का परिचय भी एक क्रम में देने का प्रयास किया है। अन्त में परीकथाओं, मुग्धकथाओं और प्राणिकथारूपी नीतिसंबंधी कथाओं पर जैन कथाकारों की सफल रचनाओं का परिचय दिया है । पुरुषपात्र-प्रधान प्रमुख रचनाएँ: __ समराइच्चकहा-यह धर्मकथा के साथ-साथ प्राकृत भाषा का विशाल ग्रन्थ है।' इसमें ९ प्रकरण हैं जो ९ भवनाम से कहे गये हैं। इसमें जैन महाराष्ट्री
१. जिनरत्नकोश, पृ. ४१९, बिल्लियोथेका इण्डिका सिरीज, कलकत्ता,
१९२६; विण्टरनित्स, हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५२३५२५; संस्कृत-छाया सहित दो भागों में क्रमशः १९३८ और १९४२ में अहमदाबाद से प्रकाशित; भव १, २, ६, मधुसूदन मोदी, अंग्रेजी अनुवाद एवं भूमिका, अहमदाबाद, सन् १९३३-३६, भव २, गोरेकृत अंग्रेजी भूमिका, अनुवादसहित, पूना, १९५५; इस पर कवि पद्मविजय ने नौ खण्डौ एवं गेय ढालों में सं० १८३९-४२ में गुजराती रास लिखा है; इस पर शिवजी देवसी शाह ने उपन्यास लिखा है जिसे मेघजी हीरजी ने बम्बई से प्रकाशित किया; दूसरा उपन्यास 'वैरना विपाक' शीर्षक
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