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कथा-साहित्य
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प्राकृत गद्य की प्रधानता है पर उसमें भी यत्र-तत्र शौरसेनी का प्रभाव देखा जाता है। बीच-बीच में पद्य भाग भी हैं जो आर्या छन्दों में हैं पर द्विपदी. विपुला आदि छन्दों का भी प्रयोग हुआ है। भाषा सरल और प्रवाहपूर्ण है । सुबंधु और बाण के ग्रन्थों जैसी जटिल भाषा का यद्यपि इसमें प्रयोग नहीं हुआ है फिर भी यत्र-तत्र वर्णन-प्रसंग में लम्बे समासों और उपमा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है जिससे कर्ता का काव्य-कौशल ज्ञात होता है। इसके कितनेक वर्णन बाण की कादम्बरी और श्रीहर्ष की रत्नावलि से प्रभावित है। इस विशाल रचना का ग्रन्थान १०००० श्लोक-प्रमाण है।
इस कथाग्रन्थ में दो ही आत्माओं के नौ मानवभवों का विस्तृत एवं सरल वर्णन है । वे हैं : उज्जैन के नरेश समरादित्य ( पीछे समरादित्य केवली ) और उन्हें अग्नि द्वारा भस्मसात् करने में तत्पर गिरिसेन चाण्डाल । एक अपने पूर्व भवों से पापों का पश्चात्ताप, क्षमा, मैत्री आदि भावनाओं द्वारा उत्तरोत्तर विकास करता है और अन्त में परमज्ञानी और मुक्त हो जाता है तो दूसरा प्रतिशोध की भावना लिए संसार में बुरी तरह फँसा रहता है । ___ कथावस्तु-समरादित्य और गिरिसेन अपने मानवभवों के नववे भवपूर्व में क्रमशः राजपुत्र गुणसेन और पुरोहितपुत्र अग्निशर्मा थे। अग्निशर्मा की कुरूपता की गुणसेन नाना प्रकार से हसी उड़ाया करता था जिससे विरक्त होकर अग्निशर्मा ने दीक्षा ले ली और मासोपवास संयम का पालन किया। राज्यपद पाने पर गुणसेन ने अग्निशर्मा तपस्वी को क्रमशः तीन बार आहार के लिए आमंत्रित किया किन्तु तीनों बार राजकाज में व्यस्त होने से उसे भोजन न करा सका। इससे
अग्निशर्मा ने यह समझ लिया कि राजा ने वैर लेने के लिए ही उसे इतनी बार निमंत्रित कर आहार से बंचित रखा है। इससे क्रुद्ध होकर उसने मारणान्तिक संलेखना द्वारा प्राण-त्याग करते समय इस बात का निदान ( फलेच्छा) किया कि 'मेरे तप, संयम और त्याग का यदि कोई फल मिलना है तो मैं जन्म-जन्मान्तरों में इस प्रवंचना का गुणसेन के जीव से उसे मार-मारकर बदला लेता रहूँ।' इस
से भीमजी हरजीवन 'सुशील' ने भावनगर से संवत् २००२ में; इसका हिन्दी अनुवाद (श्री कस्तूरमल बांठिया) जिनदत्तसूरि सेवासंघ, मद्रासबम्बई से सं० २०२१ में प्रकाशित; इस महाग्रंथ का गुजराती अनुवाद हेमसागरसूरि ने आनन्दहेम ग्रन्थमाला (३१-३३), खाराकुवा, बम्बई से सन् १९६६ ई० में प्रकाशित कराया है।
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