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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास देकर समझाया गया है। इसकी शैली, रचना-विन्यास और विषय पंचतंत्र जैसे हैं। इस ग्रंथ की रचना में लेखक के धार्मिक और लौकिक दोनों दृष्टिकोण रहे हैं। इन दृष्टान्त-कथाओं में सभी प्रकार की लौकिक चतुराई भरी हुई है और कुछ में जैनधर्म और आचार की छाप स्पष्ट दिखायी पड़ती है। यद्यपि इन विषयों पर दूसरों ने भी कथाएँ कही है फिर भी यह सम्भव है कि इसकी अधिकांश कथाएँ कल्पित हों और अनुरोधवश रची गयी हों। कुछ कथाएँ प्रचलित भारतीय कथाओं से ली गई हैं और कुछ जैनागमों की टीकाओं से ।
अन्तरकथा शीर्षक का सम्भवतः यह अर्थ है कि जैसे बड़ी कथा की उपकथाएँ होती हैं उसी तरह यहाँ ये दृष्टान्त-कथाएँ हैं ।
रचयिता और रचनाकाल-इसके रचयिता राजशेखरसूरि हैं जो कि प्रबन्ध. कोश (सं० १४०५ ) के रचयिता भी हैं। इनके गुरु सागरतिलकगणि हैं जो हर्षपुरीयगच्छ के थे। इनकी अन्य कृतियाँ षड्दर्शनसमुच्चय, स्याद्वादकलिका, रत्नाकरावतारिकापंजिका और न्यायकंदलीपंजिका हैं । राजशेखर का समय १४वीं शताब्दी का मध्य माना जाता है।
उक्त रचना के अतिरिक्त और भी कई कथा-संग्रहों का उल्लेख जिनरत्नकोश में है जिनका विशेष परिचय मालूम नहीं है। उनकी सूची तथा संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जाता है:
१. हेमाचार्य का कथासंग्रह । २. आनन्दसुन्दर का कथासंग्रह ।
३. मलधारीगच्छीय गुगसुन्दर के शिष्य सर्वसुन्दर (सं० १५१०) का कथासंग्रह।
४. संख्या ३३५ (सन् १८७१-७२ की रिपोर्ट) के कथासंग्रह में पहली कथा विक्रमादित्य की है । इसके अतिरिक्त श्रीपाल आदि की अन्य कहानियाँ हैं जिनमें जैनव्रतों और आचागे के फलों का प्रभाव दिखाया गया है। इसकी सब कथाएँ संस्कृत में हैं परन्तु उनमें मगटी और अपभ्रंश के उद्धरण भी हैं। सिर्फ एक कथा ही इस संग्रह में प्राकृत में है ।
५. सं० १२७२ (मन् १८८४-८७ की रिपोर्ट) के कथासंग्रह (संवत् १५२४) में जीवकथा आदि कई विषयों पर संस्कृत में कई उपदेशात्मक छोटी-छोटी
१. जिनरत्नकोश, पृ० ६६.
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