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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ३. कथाकोश–इसे व्रतकथाकोश और कथावली भी कहते हैं। इसमें व्रतों, धार्मिक क्रियाओं, नियमों, अनुष्ठानों तथा तपों की कथाएं दी गई हैं यथा अष्टाह्निक व्रतकथा, आकाशपञ्चमी, मुक्तासप्तमी, चन्दनषष्ठी आदि ।
कर्ता तथा रचनाकाल-इसे मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ, बलात्कारगण के श्रुतसागर ने रचा है। उन्होंने अपने को ब्रह्म० या देशयती कहा है। इनके गुरु का नाम भट्टारक विद्यानन्दि था, जो पद्मनन्दि के प्रशिष्य और देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। विद्यानंदि का भट्टारक पद गुजरात के ईडर नामक स्थान में था
और उनके पट्टधर मल्लिभूषण और उसके बाद लक्ष्मीचन्द्र भट्टारक हुए। मल्लिभूषण को श्रुतसागर ने गुरुभाई कहा है। श्रुतसागर बड़े विद्वान् थे। इनकी अनेक उपाधियां थी। इनकी अन्य कृतियां तत्त्वार्थवृत्ति, यशस्तिलकचन्द्रिका, औदार्यचिन्तामणि, तत्त्वत्रयप्रकाशिका, जिनसहस्रनामटीका, महाभिषेकटीका, घटप्राभृतटीका, श्रीपालचरित, यशोधरचरित, सिद्धभक्तिटीका, सिद्धचक्राष्टकटीका आदि ग्रन्थ हैं। इन्होंने षटप्राभृत की संस्कृत टीका में भी कई कथाएँ दी हैं। ___ श्रुतसागर विक्रम की १६वीं शताब्दी के विद्वान् थे। इनके किसी भी ग्रन्थ में रचना का समय नहीं दिया गया है पर अन्य उल्लेखों से इनके समय का अनुमान किया गया है।
कुछ अन्य कथाकोश हैं जिन्हें 'व्रतकथाकोश' भी कहते हैं। उनमें दयावर्धन, देवेन्द्रकीर्ति, धर्मचन्द्र एवं मल्लिषेण की रचनाओं का उल्लेख मिलता है।
अन्य कथाकोशों में वर्धमान, चन्द्रकीर्ति, सिंहसूरि तथा पद्मनन्दि के ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । वर्धमान अभयदेव के शिष्य थे और उनके कथाकोश को 'शकुनरत्नावलि' भी कहते हैं।"
१. जिनरत्नकोश, पृ० ६६ और ३६८. २. पं० नाथूराम प्रेमी, जैन साहित्य और इतिहास (द्वि० सं० ), पृ०
३०१-३७७. ३. भारतीय ज्ञानपीठ, वाराणसी से प्रकाशित. ५. जिनरत्नकोश, पृ. ३६८. ५. वही, पृ० ६५, ३६८.
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