________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इस कथाकोश में
जिनरत्नकोश में भी यही नाम दिया गया है । पर अन्य कथाकोशों की भाँति इसके संक्षिप्त नाम कथाकोश और प्रबंधपंचशती मिलते हैं। ४ अधिकार हैं जिनमें सब मिलाकर ६२५ कथाप्रबंधों का संग्रह है । प्रथम अधिकार में १ - २०३ तक, द्वितीय में २०४-४२६ तक, तृतीय में ४२७ - ४७६ तक और चतुर्थ में ४७७-६२५ तक कथाएँ दी गई हैं ।
२४६
कथाकार ने इन कथाओं के संकलन में अनेक स्रोतों का आश्रय लिया है । वे कहते हैं कि - " किंचिद्गुरोराननतो निशम्य, किंचित् निजान्यादिकशास्त्रतश्च” अर्थात् गुरु परम्परा तथा जैन- जैनेतर ग्रन्थों का उपयोग करके यह रचना लिखी गई है । इसमें विशेषतः प्रभावकचरित प्रबंधचिन्तामणि, पुरातन प्रबंधसंग्रह, प्रबंधकोश, उपदेशतरंगिणी, आवश्यकनियुक्ति आदि जैन ग्रन्थों तथा हितोपदेश, पंचतंत्र, रामायण, महाभारत आदि में प्राप्त सामग्री का उपयोग किया गया है । ग्रन्थ गुरुपरम्परा से उपलब्ध विशाल कथा - साहित्य का पश्चात्कालीन उत्तराधिकारी है इससे यह बड़े महत्त्व का है । प्रस्तुत कृति में कथाओं का विषयक्रम नहीं दिखाई पड़ता है फिर भी इसके तीन विभाग कर सकते हैं :
१. ऐतिहासिक प्रबंध, २. धार्मिक कथाएं, ३. लौकिक कथाएं ।
ऐतिहासिक प्रबंधों में नन्द, सातवाहन, भर्तृहरि, भोज, कुमारपाल, हेमसूरि आदि की कथाएँ दृष्टव्य हैं ।
यह ग्रन्थ गद्य-पद्यमिश्रित है जिसमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के सुभाषित अवतरणरूप में स्थान-स्थान पर दृष्टिगोचर होते हैं । इसमें संस्कृत व्याकरण के कठिन प्रयोगों से मुक्त सरल भाषा का प्रयोग किया गया है तथा लोकभाषा में प्रचलित अनेक शब्दों का संस्कृतीकरण करके इसमें प्रचुर रूपेण प्रयोग हुआ है। इसमें अनेक फारसी शब्दों का भी प्रयोग दृष्टव्य है यथा१. सुवासित साहित्य प्रकाशन, सूरत, १९६८, सम्पादक - - मुनि श्री मृगेन्द्र; जिनरत्नकोश, पृ० २२४; विण्टरनित्स ने हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५४४, टि० ३ में बतलाया है कि इटाली विद्वान् पेवोलिनी ने इस कथाग्रन्थ से लेकर द्रौपदी, कुन्ती, देवकी, रुक्मिणी कथाएं लिखी हैं । दूसरे इटाली विद्वान् बल्लिनी ने पहली ५० कथाओं का मूल और अनुवाद प्रकाशित किया है । इसी विद्वान् ने सुल्तान फिरोज द्वि० (सन् १२२०- १२९६ ) और जिनप्रभसूरि से सम्बन्धित १६ कथाओं का वर्णन किया है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org