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कथा-साहित्य
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नित्य स्मरण की एक स्तुति है। इसमें १०० धर्मात्मा गिनाये गये हैं। इनमें ५३ पुरुष ( पहला भरत और अन्तिम मेघकुमार ) और ४७ स्त्रियां ( पहली सुलसा और अन्तिम रेणा) हैं जो धर्म और तप साधनाओं के लिए जैनों में सुख्यात है । अधिकांशतः ये प्राचीन जैन कथा साहित्य में उपलब्ध कथाओं के ही पात्र हैं। इनका उल्लेख सूयगड, भगवई, नायाधम्मकहाओ, अन्तगड, उत्तराध्ययन, पइन्नय, आवस्सय, दसवेयालिय एवं विविध नियुक्तियों तथा टीकाओं में हुआ है । मूल प्राकृत गाथाओं में तो इन नामों की श्रृंखला मात्र दी गई है। पहले पहल ये गाथाएँ जैन साहित्य के विविध क्षेत्रों के अभ्यासियों के लिए बोधगम्य रही होंगी। पर पीछे मूल पर विस्तृत टीका एवं कथाओं के पूर्ण विवरण की आवश्यकता प्रतीत होने लगी और इस तरह यह विशाल कथाकोश प्रकाश में आया। इस संस्कृत टीका में गद्य-पद्य मिश्रित कथाएँ भी दी गई हैं जिनमें यत्रतत्र प्राकृत के उद्धरण विकीर्ण हैं। टीका में सब कथाएँ ही कथाएँ हैं, इसलिए इसे कथाकोना भी कहा जाता है। _रचयिता और रचनाकाल-इस महत्त्वपूर्ण कथासंग्रह के रचयिता शुभशीलगणि हैं। इनके गुरु का नाम मुनिसुन्दरगणि था। विक्रम की १५वीं शती में हुए युगप्रभावक आचार्य सोमसुन्दर का विशाल शिष्य-परिवार था जो विद्वान् तथा साहित्यसर्जक था। सोमसुन्दर के पट्टशिष्य सहस्रावधानी मुनिसुन्दर थे। उनके अन्य गुरुभाइयों ने अनेक ग्रन्थ लिखे थे। शुभशीलगणि इसी परिवार के साहित्यसर्जक विद्वान् थे।
शुभशीलगणि ने इस कथाकोश की रचना वि० सं० १५०९ में की थी। ग्रन्थान्त में दी गई प्रशस्ति में रचना-संवत् दिया गया है।
इनकी अनेक रचनाएं उपलब्ध हैं जिनमें कुछ में रचना-संवत् दिया गया है यथा-विक्रमादित्यचरित्र (वि० सं० १४९९), शत्रुजयकल्प कथाकोश ( वि० सं० १५१८), पंचशतीप्रबंध (वि० सं० १५२१), भोजप्रबंध, प्रभावककथा, शालिवाहनचरित्र, पुण्यधननृपकथा, पुण्यसारकथा, शुकराजकथा, जावड़कथा, भक्तामरस्तोत्रमाहात्म्य, पंचवर्गसंग्रहनाममाला, उणादिनाममाला और अष्टकर्मविपाक।
शुभशीलगणि कथात्मक ग्रन्थ लिखने में विशेष प्रवण थे।
पंचशतीप्रबोधसंबंध-ग्रन्थकार ने ग्रन्थ के प्रारंभ में इसका नाम इस प्रकार सूचित किया है- "ग्रन्थोायं पञ्चशतीप्रबोधसंबंधनामा क्रियते मया तु"।
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