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कथा-साहित्य
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४. कथाकोश-यहाँ कुछ अज्ञात लेखकों के संस्कृत प्राकृत कथाकोशों का परिचय दिया जाता है । इनमें से अधिकांश की हस्तलिखित प्रतियां पूना के भाण्डारकर प्राच्य मन्दिर के सरकारी संग्रह विभाग में उपलब्ध हैं।
१. सं० ४७८ (सन् १८८४-८६)- इसके पहले तीन पत्रों में हरिषेण का कथाकोश है। इसके बाद ५३ व्रत-कथाएँ हैं जिनमें सुगन्धदशमी, षोडशकारण और रत्नावली संस्कृत में है। शेष अपभ्रंश में हैं।
२. सं० ५८२ (१८८४-८६ )-इसमें संस्कृत श्लोकों के बाद ही दृष्टान्त कथाएँ दी गई हैं जिनमें कुछ जिनप्रभसूरि, जगसिंह, सातवाहन, जगडूशाह आदि के प्रबंध भी हैं।
३. सं० ५८३ ( १८८४-८६ )-यह दोनों ओर से टूटा-फूटा है। यह संस्कृत पद्य में है जिसमें संस्कृत-प्राकृत दोनों प्रकार के उद्धरण हैं। संभवतः इसमें सम्यक्त्वकौमुदी की ही कथाएँ हैं।
४. सं० १२६६ (१८८४-८७)-यह चन्द्रप्रभ की स्तुति से प्रारंभ होता है और इसमें संस्कृत में आरामतनय, हरिषेण, श्रीषेण, जीमूतवाहन आदि की कथाएँ दी गई हैं । यह अपूर्ण है । केवल ४७ पृष्ठ उपलब्ध हैं ।
५. सं० १२६७ ( १८८४-८७)-इसमें वे कहानियाँ हैं जो सामान्यतया सम्यक्त्वकौमुदीकथा नाम से कहलाती हैं। प्रारम्भ का गद्य कुछ दूसरी तरह का है और वह इस प्रकार का है-गोडदेशे पाडलीपुरनगरे आर्यसुहस्तिसूरीश्वराः । त्रिखण्डभरताधिपसंप्रतिराज्ञोऽग्रे धर्मदेशनां चक्ररेवं भो भो भव्याः । इसमें सबसे अन्त में पात्रदान के दृष्टान्तरूप में धनपति की कथा दी गई है। यद्यपि यह संस्कृत का ग्रन्थ है पर इसमें यत्र-तत्र प्राकृत गाथाएं दी गई हैं।
६. सं० १२६८ ( १८८४-८७)-इसमें प्राकृत कथाएँ दी गई हैं यथा गंधपूजा पर शुभमति की, धूपपूजा पर विनयंधर की तथा अन्य दृष्टान्तकहानियाँ। इसकी प्रशस्ति और कुछ अंश संस्कृत में है। इसकी रचना हर्षसिंहगणि द्वारा सारंगपुर में की गई थी।
१. इन सबका परिचय बृहत्कथाकोश में डा. उपाध्ये द्वारा लिखी प्रस्तावना के
भाधार पर दिया जाता है।
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