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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आख्यानकमणिकोश
१२७ उपदेशप्रद
( अक्खाणयमणिकोस ) - यह कथाओं ( आख्यानकों ) का बृहद् संग्रह है ।" मूल कृति में प्राकृत की ५२ गाथाएँ हैं । पहली में मंगलाचरण, दूसरी में प्रतिज्ञात वस्तु का निर्देश है और शेष पचास गाथाओं को ४१ अधिकारों में विभक्त किया गया है। इन गाथाओं - में उन उन अधिकारों में प्रतिपाद्य विषयसम्बंधी दृष्टान्तकथाओं के पात्रों का नाम-निर्देश मात्र किया गया है । ये कथाएँ पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों और श्रुतिपरम्परा से प्रसिद्ध थीं। लेखक ने केवल उन सबको विविध विषयों के साथ सम्बद्ध करके उनका विषय-दृष्टि से वर्गीकरण किया है और स्मृतिपथ में लघु रीति से लाने के लिए एक लघु कृति के रूप में बनाया है । इन गाथाओं में वैसे १४६ आख्यानकों का निर्देश ग्रन्थकार ने किया है पर कई की पुनरावृत्ति भी
गई है इसलिए वास्तविक संख्या १२७ ही होती है I
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रचयिता और रचनाकाल - इन कथात्मक गाथाओं के रचयिता बृहद्गच्छीय आचार्य देवेन्द्रगणि' ( नेमिचन्द्रसूरि ) हैं । इनका परिचय इनकी अन्यतम कृति महावीरचरिय के प्रसंग में दिया गया है । प्रस्तुत कथाकोश की रचना वि० - सं० १९२९ में हुई थी ।
आख्यानकमणिकोशवृत्ति- -उक्त ग्रन्थकार की जीवन- समाप्ति के कुछ दशकों बाद इस पर एक बृहद्वृत्ति रची गई । मूल गाथाओं पर वृत्ति संस्कृत में है पर १२७ आख्यानकों में से १४, १७, २३, ३९, ४२, ६४, १०९, १२१. १२२ और १२४ ये तो संस्कृत में, २२वां और ४३वां अपभ्रंश मैं और शेष आख्यानक प्राकृत में हैं । ७३वें भावभट्टिका के अन्तर्गत अन्तिम चारुदत्तचरिउ अपभ्रंश में है । संस्कृत में लिखे गये आख्यानको में १७ और १२४" गद्य में हैं और १४ वां' चम्पू- शैली में है तथा प्राकृत
१.
प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी, १९६२.
२. अवखाणयमणिकोसं एवं जो पढइ कुणइ जहयोगं ।
देविंदसाहुमहिथं अइरा सो लहइ अपवग्गं ॥
३. भरताख्यानक और सोमप्रभाख्यानक.
४. यह परियों की कथा की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व का है। इसके कुछ भाग की तुलना 'अरेबियन नाइट्स' से की जा सकती है ।
५. चण्डचूडाख्यान.
सीता- आख्यानक.
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