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पौराणिक महाकाव्य
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विजेता माने जाते हैं। उन्होंने शाकंभरी नरेश ( पृथ्वीराज ) के दरबार में
जयपत्र पाया था ।
जिनेश्वरसूरि- चतुःसप्ततिका — इसमें ७४ गाथाएँ हैं जिनमें जिनपति के शिष्यजिनेश्वरसूरि के माता-पिता, नगर के नाम के साथ जन्म ( सं० १२४५ ), दीक्षा एवं आचार्यपद ( सं० १२७८ ) का वर्णन है । ये लक्षण, प्रमाण और शास्त्रसिद्धान्त के पारगामी थे । इन्हें ३४ वर्ष की आयु में गच्छाधिपतिपद मिला था । इन्होंने शत्रुंजय आदि अनेक तीर्थों की यात्रा की थी । यह एक अज्ञातकर्तृक रचना है |
जिनप्रबोधसूरि- चतुःसप्ततिका - इसमें ७४ गाथाओं में जिनेश्वरसूरि के शिष्य जिनप्रबोध के पूर्व क्रमानुसार जन्म ( सं० १२८५ ), दीक्षा एवं आचार्यपद (सं० १३३१) का वर्णन है । ये बड़े विद्वान् एवं प्रभावक गच्छनायक थे । इन्होंने कातंत्र व्याकरण पर दुर्गपदप्रबोघटीका वि० सं० १३२८ में बनायी थी और विवेकसमुद्रगणिकृत पुण्यसारकथा का संशोधन किया था। इनका स्वर्गवास सं० १३४१ में हुआ था । इस चरित्र के रचयिता विवेकसमुद्रगणि हैं जो उन्हीं के संघ में वाचनाचार्य थे और पुण्यसारकथा के कर्ता थे ।
जिनचन्द्रसूरि - चतुःसप्ततिका — इसमें ७४ गाथाओं में जिनप्रबोध के शिष्य जिनचन्द्र ( ३ ) का चरित वर्णित है।' ये बड़े प्रभावक आचार्य थे। इन्होंने अपने युग के चार राजाओं को प्रतिबोधित किया था । इन्हें सं० १३४१ में आचार्य. पद मिला था तथा इनका सं० १३७६ में स्वर्गवास हुआ था । इसकी रचना उनके ही शिष्य जिनकुशलसूरि ने की थी ।
जिनकुशलसूरि-चहत्तरी - इसमें ७४ गाथाओं में जिनचन्द्र ( ३ ) के शिष्य एवं पट्टधर जिनकुशलसूरि के जन्म ( वि० सं० १३३७ ), दीक्षा ( सं० १३४६ ), वाचनाचार्यपद (सं० १३७५ ) एवं आचार्यपद ( सं० १३७७ ) का वर्णन है । इनका स्वर्गवास सं० १३८९ में हुआ था । इन्होंने अपने पट्टकाल में नाना नगरों- देशों में विहार कर जैन धर्म को बड़ी ही प्रतिष्ठा प्रदान की थी ।
इसकी रचना उन्हीं के शिष्य आचार्य तरुणप्रभ ने की है ।
जिनलब्धिसूरि-चहत्तरी - जिनलब्धिसूरि के सम्बन्ध में प्राप्त अद्यावधि सामग्री में यही प्रामाणिक और विस्तृत है । जिनलब्धि का जन्म सं० १३६० में
१. दादा जिनकुशलसूरि के परिशिष्ट में श्री अगरचन्द नाहटा ने प्रकाशित की है ।
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