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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के दोष दिखाने का कुफल, १ कथा में मुनि-अपमान-निवारण का सुफल, १ कथा में जिनवचन पर अश्रद्धा का कुफल, १ कथा में धर्मोत्साह प्रदान करने का सुफल, १ कथा में गुरुविरोध का फल, १ में शासनोन्नति करने का फल तथा अन्तिम कथा में धर्मोत्साह प्रदान करने का फल वर्णित है।
यद्यपि इस कथाकोश की कथाएं प्राकृत गद्य में लिखी गई हैं फिर भी प्रसंगवश प्राकृत पद्यों के साथ संस्कृत और अपभ्रंश के पद्य भी मिलते हैं। भाषा की दृष्टि से कथाएं सरल एवं सुगम है। इसमें व्यर्थ के शब्दाडम्बर एवं दीर्घसमासों का अभाव है। कथाओं में यत्र-तत्र चमत्कार एवं कौतूहल तत्व विखरा पड़ा है। धार्मिक कथाओं में शृंगार और नीति का संमिश्रण प्रचुर रूप में हुआ है जिससे मनोरंजकता विपुल मात्रा में आ गई है। इन कथाओं में तत्कालीन समाज, आचार-विचार, राजनीति आदि के सरस तत्त्व विद्यमान हैं।
__ रचयिता और रचनाकाल-इस ग्रन्थ के प्रारंभ और अन्त से ज्ञात होता है कि इसके रचयिता जिनेश्वर सूरि हैं। इनका श्वेताम्बर सम्प्रदाय में एक विशिष्ट स्थान है। इन्होंने शिथिलाचारग्रस्त चैत्यवासी यतिवर्ग के विरुद्ध
आन्दोलन कर सुविहित या शास्त्रविहित मार्ग की स्थापना की थी और श्वेताम्बर संघ में नई स्फूर्ति और नूतन चेतना उत्पन्न की थी। इनके गुरु का नाम वर्द्धमानसूरि था और भाई का नाम बुद्धिसागरसूरि था। ये ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुए थे पर धारा नगरी के सेठ लक्ष्मीपति की प्रेरणा से वर्धमानसूरि के शिष्य हुए थे।
इनकी विशाल और गौरवशालिनी शिष्यपरम्परा थी जिससे श्वेता० समाज में नूतन युग का उदय हुआ। इनकी शिष्यपरम्परा में नवांगी वृत्तिकार अभयदेवपरि, संवेगरंगशाला के लेखक जिनचन्द्रसूरि, सुरसुन्दरीकथा के कर्ता धनेश्वरसूरि, जयन्तविजयकाव्य के रचयिता अभयदेव (द्वितीय), पासनाहचरिय और महावीरचरिय के प्रणेता गुणचन्द्रगणि अपरनाम देवभद्रसूरि आदि अनेक विद्वान्, शास्त्रकार, साहित्य-उपासक हो गये हैं।
इनके शिष्य-प्रशिष्यों ने इन्हें युगप्रधान विरुद से संबोधित किया है।
प्रस्तुत कथाकोषप्रकरण के अतिरिक्त इनके रचित ग्रन्थ चार और हैं : प्रमालक्ष्म, निर्वाणलीलावतीकथा, षटस्थानकप्रकरण, पञ्चलिङ्गीप्रकरण । उनमें निर्वाणलीलावतीकथा ( प्राकृत ) अबतक अनुपलब्ध है।
1. डा. जगदीशचन्द्र जैन, प्राकृत साहित्य का इतिहास, पृ० १६१-४१९.
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