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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास अहिंसा आदि के महत्त्व को बतलाने के लिए मात्र धार्मिक काव्य-रूप में लिखे गये हैं जिनमें चित्तविस्मयोत्पादक बातें भी समाविष्ट हैं।
समकालिक विशाल रचनाओं में सर्वप्रथम कुमारपाल और उसके वंश का वर्णन करनेवाला चरित्र हेमचन्द्राचार्यकृत द्वथाश्रयमहाकाव्य (१० सगं संस्कृत में, ८ सर्ग प्राकृत में ) मिलता है । उसका विवेचन हम ऐतिहासिक एवं शास्त्रीय महाकाव्यों में करेंगे। द्वितीय कुमारपालप्रतिबोध ( सोमप्रभकृत ) है जो प्रधानतः कथाकोश ही है। उसका परिचय कथाकोशों के प्रसंग में दिया गया है।
पश्चात्कालीन लघु रचनाओं का संग्रह मुनि जिनविजयजी ने 'कुमारपालचरित्रसंग्रह' नाम से प्रकाशित करा दिया है । इनके अतिरिक्त पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में दो बड़े चरितग्रंथ भी लिखे गये हैं। उनमें कुमार. पालभूपालचरित' की रचना महेन्द्रसूरि के शिष्य जयसिंहसूरि ने १० सर्गों (६०५३ पद्यों) में की है। इस काव्य में ऐतिहासिक और पौराणिक दोनों शैलियों का सम्मिश्रण हुआ है। पौराणिक शैली के महाकाव्यों की तरह इसके प्रारम्भ में नायक की वंश-परम्परा का वर्णन है तथा अन्तिम सर्ग में कुमारपाल के पूर्वजन्मों का विवरण दिया गया है । स्थान-स्थान पर जैन धर्म के उपदेश विद्यमान हैं। इन उपदेशों में अनेक अवान्तर कथाएँ गर्भित हैं। मूल कथानक में हेमचन्द्र और कुमारपाल सम्बन्धी अनेक अलौकिक और अतिप्राकृतिक घटनाओं की योजना की गई है। सम्भवतः हेमचन्द्र की मृत्यु के बाद उनके सम्बन्ध में अनेक अलौकिक, चमत्कारपूर्ण घटनाएँ श्रद्धालु जनता में फैल गयी हों और उन्हीं किंवदन्तियों का उपयोग कवि ने अपने इस ग्रंथ-निर्माण में किया हो।
इस काव्य से प्राप्त ऐतिहासिक तथ्यों का वर्णन ऐतिहासिक काव्यों के प्रसंग में करेंगे।
काव्यत्व की दृष्टि से कर्ता ने कुमारपालभूपालचरित को घटना-प्रधान काव्य बनाया है। इससे इसमें विविध रसों का अच्छा परिपाक मिलता है। काव्य की भाषा सरल और प्रवाहयुक्त है। इसमें देशी भाषा से प्रभावित शब्दों का प्रयोग अधिक हुआ है। इसमें अलंकारों का प्रयोग कम हुआ है फिर भी सादृश्यमूलक
१. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रंथांक ४१, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, १९५६. २. जिनरस्नकोश, पृ० ९२, हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९१५, गोदीजी
जैन उपाश्रय, बम्बई, १९२६.
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