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पौराणिक महाकाव्य
२१५ हरिभद्रसूरिचरित–हरिभद्रसूरि के चरित पर स्वतंत्र रचनाओं में धनेश्वरसूरि ( १२वीं शती) कृत उल्लेखनीय है । इसका सम्पादन पं० हरगोविन्द दास ने वाराणसी में किया था।'
अन्य दो रचनाओं-हरिभद्रकथा एवं हरिभद्रप्रबन्ध-का भी उल्लेख मिलता है।
१६-१७वीं शताब्दी के तपागच्छीय विद्वान् मुनियों ने अपने गच्छ के अनेकों प्रभावक गुरुजनों के गुण-कीर्तन में काव्यात्मक शैली में महत्त्वपूर्ण चरित्र-ग्रन्थ लिखे हैं। वे उन महापुरुषों के आध्यात्मिक जीवन एवं धार्मिक कृत्यों का वर्णन करते हैं इसलिये पौराणिक काव्यों की श्रेणी में आते हैं फिर भी उनमें तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक प्रवृत्तियों का अच्छा चित्रण होने से वे ऐतिहासिक महत्त्व के काव्य भी माने जाते हैं।
जैन साहित्य में सं० १४५६-१५०० तक सोमसुन्दर युग, सं० १६०१ से १७०० तक हैरक युग तथा सं० १७०१ से १७४३ तक यशोविजय युग में प्रभावक आचार्यों पर इस प्रकार की अनेक कृतियाँ रची गयीं। उनका यहाँ संक्षिप्त परिचय देते हैं। उनके शास्त्रीय महाकाव्यत्व और ऐतिहासिक महाकाव्यत्व का दिग्दर्शन उन प्रसंगों में आगे करेंगे।
सोमसौभाग्यकाव्य-तपागच्छ के युग-प्रधान सोमसुन्दरसूरि पर दो-तीन जीवनचरित्र मिलते हैं। पहला तो १० सर्गात्मक सोमसुन्दर के ही शिष्य प्रतिष्ठासोम ने सं० १५२४ में (ग्रन्थान १३०० श्लोक-प्रमाण) रचा था। दूसरा तपागच्छीय लक्ष्मीसागर के शिष्य सुमतिसाधु ने लिखा था। इसका रचनाकाल ज्ञात नहीं है। सुमतिसाधु का स्वर्गवास सं० १५५१ में हुआ था। इससे यह रचना इसके पूर्व अवश्य रचित हुई है। सुमतिसाधु के चरित्र पर भी एक सुमतिसम्भवकाव्य सं० १५४७-१५५१ के बीच लिखा गया था।
एक अज्ञातकत्र्तक तीसरे सोमसौभाग्यकाव्य का भी उल्लेख मिलता है।
१. जिनरत्नकोश, पृ० ४५९. २. वही, पृ० ४५३; इसका सार 'जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास', पृ०
४५१-४६१ में दिया गया है। ३. वही. ४. वही.
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