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पौराणिक महाकाव्य
इसमें नेमिनाथ के पूर्व नव भवों का, नेमिनाथ और राजीमती का नव भवों से उत्तरोत्तर आदर्श प्रेम, पति-पत्नी का अलौकिक स्नेह, राजीमती का वैराग्य, साध्वी-जीवन, नेमिनाथ के बालक्रीड़ा, दीक्षा, केवलज्ञान, मोक्षगमन का सुन्दर वर्णन है। साथ ही इसी में वसुदेव राजा का चरित्र और उच्च श्रेणी का पुण्य फल और उसके मीठे फल का वर्णन, श्रीकृष्ण का चरित्र, वैभव, पराक्रम, राज्यवर्णन, प्रतिनारायण जरासंध का वध, श्रीकृष्ण की नेमिनाथ के प्रति अपूर्व भक्ति, तद्भव मोक्षगामी और श्रीकृष्ण के शाम्ब और प्रद्मम्न का जीवनवृत्तान्त, नल-दमयन्ती का जीवनचरित्र, नल राजा का अपने बन्धु कुबेर से जुए में हारना, राजत्याग, दमयन्ती का पति से वियोग, नाना कष्ट, अद्भुत धैर्य, शीलरक्षा, पाण्डवों का चरित्र, द्रौपदी का स्वयंवर, पति-सेवा, द्वारिकादहन आदि वर्णन विस्तार से किये गये हैं। __ग्रन्थकार और रचनाकाल-इसके रचयिता तपागच्छ के हीरविजयसूरीश्वर के पट्टधर कनकविजय पण्डित के प्रशिष्य और वाचक विवेकहर्ष के शिष्य गुणविजयगणि हैं। इन्होंने सौराष्ट्र के सुरपत्तन शहर के पास द्रंगबन्दर में सं० १६६८ की आषाढ़ पंचमी को यह ग्रन्थ प्रारम्भ किया और श्रावण षष्ठी को समाप्त किया था। इसकी रचना उन्होंने जीतविजयगणि के अनुरोध से की थी। ग्रंथ के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ये बातें विदित होती हैं। __ अन्य अप्रकाशित नेमिचरितों के लेखक तिलकाचार्य (ग्रन्थान ३५००-लोकप्रमाण), नरसिंह, भोजसागर, हरिषेण, मंगरस तथा मल्लिभूषण के शिष्य ब्रह्मनेमिदत्त का उल्लेख मिलता है। ब्रह्मनेमिदत्त की कृति का नाम नेमिनिर्वाणकाव्य तथा नेमिपुराणभी है। इसकी रचना सं० १६३६ में हुई थी। इसमें १६ सर्ग हैं। रचयिता ने अपने को मूलसंघ सरस्वतीगच्छ का माना है।
तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के चरित के एक विशेष घटनाप्रधान और चमत्कारी होने के कारण जैन लेखकों ने प्राकृत, अपभ्रंश और संस्कृत में २५ से भी अधिक पाश्वनाथचरित तथा अन्य काव्य विधाओं पर रचनाएँ की हैं। उनमें संस्कृत में जिनसेन प्रथम (९ वीं शती) कृत पार्वाभ्युदय उत्तम कोटि का समस्यापूर्ति काव्य है। इसमें मेघदूत के सभी पद्यों का समावेश किया गया है।
१. जिनरस्नकोश, पृ० २१७-१८, . २. इसका हिन्दी अनुवाद पं० उदयलाल कासलीवाल ने किया है-दिगम्बर
जैन पुस्तकालय, सूरत, सं० २०११.
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