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पौराणिक महाकाव्य
परिचय उपलब्ध नहीं हुआ है परन्तु सं० उक्त ग्रन्थ की प्रशस्ति में रचनाकाल सं० हुआ है । इस काव्य के अतिरिक्त कवि ने व्यसनकथा लिखी थी तथा अनेक कृतियाँ राजस्थानी में भी ।
साम्बप्रद्युम्नचरित - इसमें प्रद्युम्न और उसके अनुज साम्ब के लोकरंजक चरित्र का वर्णन १६ सर्गों में प्रांजल संस्कृत पद्यों में दिया गया है । यह काव्य ७२०० श्लोक प्रमाण है । कथा के उपोद्घात में बतलाया है कि यह कथा अन्तःकृद्दशांग के चतुर्थ वर्ग के ८ वें सूत्र में आती है और इसे सुधर्मा गणधर ने जम्बू को कहा था ।
रचयिता एवं रचनाकाल - ग्रन्थ के अन्त में ५३ पद्यों की एक प्रशस्ति और एक पुष्पिका दी है जिससे ज्ञात होता है कि इसके कर्ता नूतनचरित्रकरण- परायण पण्डित चक्र चक्रवर्ती पं० श्री रविसागर गणि' हैं जिन्होंने इस ग्रन्थ को सं० १६४५ में समाप्त किया था और उनके शिष्य जिनसागर ने लिपिबद्ध किया था । तपागच्छ के हीरविजय सन्तानीय राजसागर इनके दीक्षागुरु थे और सहजसागर तथा विनयसागर इनके अध्यापक थे । इसकी रचना मांडलि नगर में खेंगार राजा के राज्यकाल में हुई थी । "
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१५१८ में ये भट्टारक पद पर थे । १५३१ पौष सुदी १३ बुधवार दिया संस्कृत में यशोधरचरित और सत
प्रद्युम्नचरित - इसे महाकाव्य ' भी कहा गया है जो १६ सर्गों में विभक्त है । ग्रन्थप्रमाण ३५६९ श्लोक- प्रमाण है । इसमें प्रद्युम्न को निमित्त बनाकर सौराष्ट्र
१. सर्ग १८, पद्य सं० १६९.
२.
डा० कस्तूरचन्द्र कासलीवाल, राजस्थान के जैन सन्तः व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जयपुर, १९६१, पृ० ४३; जिनरत्नकोश, पृ० २६४; हिन्दी अनुवाद, बुद्धलाल पाटनी, जैन ग्रन्थ कार्यालय, मदनगंज, राजस्थान.
४.
३. हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९१७; पं० मफतलाल झवेरचन्द्र, अहमदाबाद, वि० सं० २००८; जिनरत्नकोश, पृ० २६४ और ४३३.
पद्य सं० ४८-५३.
तस्मिन् मांडलिनाम्नि चारुनगरे खेंगारराजोत्तमे,
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सम्पूर्णसमजायतोरुचरितं
प्रद्युम्ननामानघ ।
संख्यातश्च सहस्रसप्तकमिदं द्वाभ्यां शताभ्यां (७२००) शुभं, पंचांभोनिधिषड् निशापतिमिते १६४५ वर्षे चिरं नंदतान् ॥ ६. बी० बी० एण्ड कम्पनी, खारगेट, भावनगर, वि० सं० १९७४; जिनरत्न
कोश, पृ० २६४.
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