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पौराणिक महाकाव्य
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विलंवित, भुजंगप्रयात, वंशस्थ, पुष्पिताग्रा, प्रहर्षिणी, मालभारिणी, मालिनी और वसन्ततिलका उल्लेखनीय है । काव्य में छन्द- सम्बन्धी अनियमितताएँ भी दृष्टिगोचर होती हैं, जैसे अनुष्टुप् के कुछ छन्दों में नौ अक्षर हैं। एक उपजाति में एक चरण वंशस्थ वृत्त का है। एक में अक्षराधिक्य है । '
रचयिता और रचनाकाल —- इस काव्य में ग्रन्थकार का कहीं नामोल्लेख नहीं हुआ, न कोई प्रशस्ति ही दी गई है इससे उसके सम्बन्ध में अन्तरङ्ग साक्ष्य एक प्रकार से मूक है पर बाह्य साक्ष्यों से हमें अवश्य सहायता मिलती है । यथा सर्वप्रथम उद्योतनसूरि ने अपने काव्य कुवलयमाला ( ई० ७७८ ) में वरांगचरित और उसके रचयिता जटिल का उल्लेख किया है। इसके पाँच वर्ष बाद बिनसेन ने अपने हरिवंशपुराण ( ई० ७८३ ) में केवल वरांगचरित की प्रशंसा की है— 'सुन्दरी नारी की तरह वराङ्गचरित की अर्थपूर्ण रचना अपने गुणों से किसके हृदय में अपने प्रति गाढ़ अनुराग उत्पन्न नहीं करती १३ एक अन्य जिनसेन के आदिपुराण ( लग० ई० ८३८ ) में केवल जटाचार्य की प्रशंसा की गई है, साथ ही उसमें वराङ्गचरित से बहुत-सी सामग्री भी ली गई है । धवल कवि ने अपने अपभ्रंश हरिवंश ( ११वीं शती) में तो रचयिता और काव्य दोनों का एक साथ उल्लेख किया है ।' कन्नड 'त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित' (चामुण्डरायपुराण) के रचयिता मंत्री एवं सेनापति चामुण्डराय ने अपने पुराण के एक गद्यांश में वराङ्गचरित के प्रथम सर्ग के छठे और सातवें श्लोकों को व्याख्यान रूप में दिया है और प्रथम सर्ग के १५ वें पद्य को 'जटासिंहनन्द्याचार्य वृत्तम् कर के उद्धृत किया है ।
उक्त उल्लेखों से निष्कर्ष निकलता है कि इस वरांगचरित के रचयिता जडिल जटाचार्य या पूर्ण नाम जटासिंहनन्द्याचार्य हैं । कन्नड साहित्य के कवियों
१. प्रस्तावना, पृ० ४८-४९.
२. जेहिं कए रमणिज्जे वरंगपउमाणचरिय वित्थारे । कह व ण सकाहणिजे ते कइणो जडिय- रविसेणो ॥ ३. वराङ्गनेव सर्वाङ्गेर्वराङ्गचरितार्थवाक् ।
कस्य नोत्पादयेद्गाढमनुरागं स्वगोचरम् ॥ १.३५. ४. काव्यानुचिन्तने यस्य जटाः प्रचलवृत्तयः ।
अर्थान्स्मानुवदन्तीव जटाचार्यः स नोऽवतात् ॥ १.२०. ५. जिणसेणेण हरिवंसु पवित्सु जडिलमुणिणा वरंगचरितु |
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