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पौराणिक महाकाव्य
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मैं लोकोक्तियों एवं मुहावरों का अत्यधिक प्रयोग हुआ है ।' उनका प्रयोग ऐसी कुशलता से किया गया है कि उनका स्वतंत्र अस्तित्व समाप्त हो गया है और वे वाक्य के अंग बन गये हैं । इस काव्य में देशी भाषा से प्रभावित शब्दों का भी बहुत प्रयोग 'हुआ है । कवि ने अनेक देशी शब्दों को ही संस्कृत रूप देकर उनका प्रयोग किया है, जैसे डोंगर ( इंगर - पर्वत ), केदारक ( क्यारि ), हदते ( हगता है ), सिंघन ( सूचना ), तालक ( ताला ), विभामण ( विछावन ), प्रोयितुं ( पिरोना ) आदि । इसकी भाषा के प्रवाह में अलंकारों का प्रयोग भी स्वभावतः हो गया है । शब्दालंकारों में अनुप्रास का प्रयोग अधिक हुआ है । अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक और अर्थान्तरन्यास का प्रयोग बहुत हुआ है । इस काव्य के प्रत्येक सर्ग में एक ही छन्द का प्रयोग हुआ है और सर्गान्त में छन्द-परिवर्तन किया गया है । १, ३, ५, ७, ९, ११, १२ सर्गों में अनुष्टुभ् छन्द का प्रयोग हुआ है । दूसरे में उपजाति, चौथे में माधव, छठे में रथोद्धता, आठवें में वसन्ततिलका छन्द का प्रयोग हुआ है । दसवें और प्रशस्ति में विविध छन्दों का प्रयोग हुआ है । इस काव्य में कुल १५ छन्दों का प्रयोग हुआ है जैसे अनुष्टुप् उपजाति, वसन्ततिलका, रथोद्धता, माधव, तोटक, स्रग्विणी, दोधक, द्रुतविलम्बित, स्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित, मालिनी, आर्या, शिखरिणी तथा मन्दाक्रान्ता ।
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कविपरिचय और रचनाकाल -- ग्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ग्रन्थकर्ता का परिचय मिलता है । तदनुसार इसके रचयिता चन्द्रतिलक उपाध्याय चन्द्रगच्छीय थे । इसी चन्द्रगच्छ में प्रसिद्ध विद्वान् वर्धमानसूरि हुए थे । उनके बाद क्रमशः जिनेश्वरसूरि, अभयदेवसूरि, जिनवल्लभसूरि, जिनदत्तसूरि, जिनचन्द्रसूरि, जिनपतिसूरि और जिनेश्वरसूरि हुए । कवि चन्द्रतिलक उपाध्याय जिनेश्वरसूरि के शिष्य थे । प्रशस्ति में कवि ने विभिन्न मुनियों का साभार उल्लेख किया है जिनसे उसने विभिन्न शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया था । इस कृति की रचना कवि ने जिनपाल उपाध्याय की प्रेरणा से की थी । इसका संशोधन लक्ष्मीतिलकगणि और अभयतिलकगणि ने किया था । इसके लेखन का प्रारम्भ वाग्भदृमेरु ( बाड़मेर ) नगर में हुआ था और समाप्ति गुजरात के खम्भात
१. वही, सर्ग १.१३०; ४.३९४; ५.४४२, ७०२; ७.६९०; ८.१२८, १५३; ९.८४, १७२, ४३०, ४८६, ६८५, ९२२, ६२३; ११. ७२१; १२. १७१ आदि.
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