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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास प्रभावकचरित्र के अतिरिक्त जैन आचार्यों के सामूहिक रूप में चरित्रों का वर्णन करनेवाले प्रबंधावलि, प्रबंधचिन्तामणि और प्रबंधकोश मिलते हैं । जिनभद्र की प्रबंधावलि ( सं० १२९० ) में मानतुंग, पादलिप्त, हरिभद्र, अभयदेव, सिद्धर्षि और देवाचार्य के चरित संग्रहीत हैं। प्रबंधावलि वर्तमान पुरातनप्रबंधसंग्रह' के अन्तर्गत प्रकाशित हुई है। मेरुतुंगकृत प्रबंधचिन्तामणि' (सं०१३६१) में संक्षेप और सामासिक शैली में भद्रबाहु, वृद्धवादी, मल्लवादी और हेमचन्द्र मात्र के चरित्र दिये गये हैं जब कि राजशेखरसूरिकृत प्रबंधकोश (सं०१४०५) में भद्रबाहु, नन्दिल, जीवदेव, आर्यखपट, पादलित, सिद्धसेन, मल्लवादी, हरिभद्र, बप्पट्टि और हेमचन्द्रसूरि के चरित्र संगृहीत हैं। प्रभावकचरित में दिये गये इन आचार्यों के चरित्रों से तुलना करने पर ज्ञात होता है कि राजशेखर के सम्मुख इन आचार्यों के चरित्र विषयक अन्य कोई संग्रह भी रहा होगा जिससे उन्होंने आचार्यविषयक प्रबंधों के लिए कितनीक सामग्री संगृहीत की है, कारण इन आचार्यों के चरित्रों में कई बातें ऐसी हैं जो प्रभावकचरित में नहीं मिलती और प्रभावकचरित की कई बातें इसमें नहीं मिलती। फिर भी प्रबंधकोश की प्रधान सामग्री प्रभावकचरित्र से ही एकत्रित की गई प्रतीत होती है ।
पुरातनप्रबंधसंग्रह, प्रबंधचिन्तामणि और प्रबंधकोश का विशेष परिचय ऐतिहासिक रचनाओं में दिया जाएगा।
१. सिंघो जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २, १९३६. २. वहीं, ग्रन्थांक १, १९३३. ३. वही, ग्रन्यांक ६, १९३५. ४. प्रबंध उस अर्ध-ऐतिहासिक कथानक को कहा जाता है जो सरल संस्कृत
गद्य और कभी-कभी पद्य में भी लिखा जाता है। प्रबंधकोश के रचयिता राजशेखरसूरि (१५वीं शताब्दी) ने उक्त कोश के प्रारंभ में चरित्र और प्रबंध का अन्तर समझाने का प्रयत्न किया है। उसके अनुसार तीर्थंकरों आदि जैनपुराण के महापुरुषों और प्राचीन नृपों तथा मार्यरक्षितसूरि (महावीर-निर्वाण ५५७ ) तक के जैनाचार्यों के जीवन-चरित्रों को चरित्रग्रन्थ कहा जाता है, इसके बाद होनेवाले आचार्यों और श्रावकों के जीवन चरितों को प्रबंध । राजशेखर की इस मान्यता का प्राचीन आधार नहीं मालूम होता।
जो कुछ भी हो, इस प्रकार की नाम-पद्धति का विवेक रचनाओं में सदा ही पालन नहीं हुआ है क्योंकि कुमारपाल, वस्तुपाल, जगडू आदि
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