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पौराणिक महाकाव्य
१५९ का चरित्र संक्षिप्त रूप से वर्णित है। जम्बूस्वामी द्वारा अपनी पत्नियों के समक्ष प्रस्तुत दृष्टान्त-कहानियाँ प्रायः सभी दी गई हैं।
रचयिता एवं रचनाकाल-यह ग्रन्थ प्राकृत चरित्रों में अपनी विशेषता रखता है क्योंकि इसकी रचना ठीक उसी प्रकार की अर्ध-मागधी प्राकृत में उसी गद्य-शैली से हुई है जैसी आगमों की। वर्णनों को संक्षेप में बतलाने के लिए यहाँ भी 'जाव', 'जहा' आदि का उपयोग किया गया है। इस से यह रचना आगमों के संकलनकाल (५ वी शता० ) के आस पास की प्रतीत होती है परन्तु ग्रन्थ के अन्त में एक प्राकृत पद्य से सूचित किया गया है कि इस ग्रन्थ को विजयदया सूरीश्वर के आदेश से जिनविजय ने लिखा, और इस ग्रन्थ की प्रति सं० १८१४ के फाल्गुन सुदि ९ शनिवार के दिन नवानगर में लिखी गई थी। किन्तु वास्तविक रचनाकाल वि० सं० १७७५ से १८०९ के बीच आता है क्योंकि तपागच्छ-पट्टावली में ६४ वें पट्टधर विजयदयासूरि का यही समय दिया गया है । जिनविजय नाम के अनेक मुनि हुए हैं। उनमें एक क्षमाविजय के शिष्य थे और दूसरे माणविजय के शिष्य जो कि विजयदयासूरि के समकालीन बैठते हैं। अधिक संभावना है कि वे माणविजय के शिष्य हो क्योंकि उनकी श्रीपालचरित्ररास, धन्नाशालिभद्ररास आदि रचनाएँ मिलती हैं। इस ग्रन्थ के लेखक ने १८ वीं शता० में भी आगमशैली में यह ग्रन्थ लिखकर एक असाधारण कार्य किया है।३ ।
अबतक हमने प्राकृत-संस्कृत में निबद्ध उन पौराणिक काव्यों का परिचय दिया जो तिरसठ शलाका महापुरुषों तथा चौबीस कामदेवों के चरितों से सम्बद्ध थे। उक्त पुराण पुरुषों के अतिरिक्त जैनधर्म और सिद्धान्तों को महत्ता प्रदान करनेवाले एवं उक्त महापुरुषों में से अनेकों के समकालीन तथा महावीर के पश्चात् होनेवालों अनेकों अद्भुत सन्तों, महर्षियों, साध्वीसतियों, राजर्षियों, व्यापारवीर श्रावकों की जीवनियों पर भी पुराण-शैली में काव्य रचे गये हैं। अद्भुत सन्तों में प्रत्येकबुद्धों के चरित उल्लेखनीय हैं। भग० ऋषभ के समकालीन भरत चक्रवर्ती १. विजयदयासूरीसर आएसं लहिम बोहणट्ठाए जिणविजयेण य लिहिमं
जम्बूचरित्तं परमरम्मं ॥ इति श्री जम्बूस्वामिचरित्रं सम्पूर्ण । सं० १८१४ वर्षे फाल्गुण सुदि ९ शनी श्रीनवानगरे श्रीमादिजिनप्रसादात् शुभं भवतु
लेखकपाठकयोः। २. प्रवेशद्वार, पृष्ठ ४. ३. भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० १४८..
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